Wednesday, January 25, 2012

परियोजना, विस्थापन और पुनर्वास लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 01-02 || 15 अगस्त से 14 सितम्बर 2011:: वर्ष :: 35 :September 18, 2011 पर प्रकाशित

परियोजना, विस्थापन और पुनर्वास

राकेश कुमार मालवीय

tehri-submergingआजादी के बाद से भारत में अब तक साढ़े तीन हजार परियोजनाओं के नाम पर लगभग दस करोड़ लोगों को विस्थापित किया जा चुका है। लेकिन सरकार को अब होश आया है कि विस्थापितों की जीविका की क्षति, पुनर्वास-पुनस्र्थापन एवं मुआवजा उपलब्ध कराने हेतु एक राष्ट्रीय कानून का अभाव है। यानि इतने सालों के अत्याचार, अन्याय पर सरकार खुद अपनी ही मुहर लगाती रही है। तमाम जनसंगठन कई सालों से इस सवाल को उठाते आ रहे थे कि लोगों को उनकी जमीन और आजीविका से बेदखल करने में तो तमाम सरकारें कोई कोताही नहीं बरतती हैं। लेकिन जब बात उनके हकों की, आजीविका की, बेहतर पुनर्वास एवं पुर्नस्थापन की आती है तो वहाँ सरकारों ने कन्नी ही काटी है। प्रशासनिक तंत्र भी कम नहीं है जिसने 'खैरात' की मात्रा जैसी बांटी गई सुविधाओं में भी अपना हिस्सा नहीं छोड़ा है। इसके कई उदाहरण हैं कि किस तरह मध्य प्रदेश में सैकड़ों सालों पहले बसे बाईस हजार की आबादी वाले हरसूद शहर को एक बंजर जमीन पर बसाया गया। कैसे तवा बांध के विस्थापितों से उनकी ही जमीन पर बनाये गए बांध से उनका मछली पकड़ने का हक भी छीन लिया गया। एक उदाहरण यह भी है कि पहले बरगी बांध से विस्थापित हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी का एक झुनझुना पकड़ाया गया। बांध बनने के तीन दशक बाद अब तक भी प्रत्येक विस्थापित परिवार को तो क्या एक परिवार को भी नौकरी नहीं मिल सकी है। लेकिन दुखद तो यह है कि सन् 1894 में बने ऐसे कानून को आजादी के इतने सालों बाद तक भी ढोया गया। इस कानून में बेहतर पुनर्वास और पुनस्र्थापन का सिरे से अभाव था। सरकार अब एक नये कानून का झुनझुना पकड़ाना चाहती है। इस संबंध में देश में कोई राष्ट्रीय कानून नहीं होने से तमाम व्यवस्थाओं ने अपने-अपने कारणों से लोगों से उनकी जमीन छीनने का काम किया है। देश भर में अब तक 18 कानूनों के जरिये भूमि अधिग्रहण किया जाता रहा है।

प्रस्तावित कानून में मुआवजा, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन के प्रावधान सैद्धांतिक रूप से ही हैं। आजादी के बाद से अब तक हुए विस्थापन के आंकड़े हमें बताते हैं कि सर्वाधिक विस्थापन आदिवासियों का हुआ है। नर्मदा नदी पर बन रहे सरदार सरोवर बांध से दो लाख लोग प्रभावित हुए। इनमें से 57 प्रतिशत आदिवासी हैं। महेश्वर बांध की जद में भी बीस हजार लोगों की जिंदगी आई। इनमें साठ प्रतिशत आदिवासी हैं। आदिवासी समुदाय का प्रकृति के साथ एक अटूट नाता है। विस्थापन के बाद उनके सामने पुनस्र्थापित होने की चुनौती सबसे ज्यादा होती है। जाहिर है आदिवासी, उपेक्षित और वंचित समुदाय के लिये इस प्रस्तावित अधिनियम में सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिये लेकिन इस मसौदे में इसी बिंदु पर सबसे बड़ा अंतर दिखाई देता है। मसौदे में कहा गया है कि ऐसे सभी जनजातीय क्षेत्रों में जहाँ कि सौ से अधिक परिवारों का विस्थापन किया जा रहा हो वहाँ एक जनजातीय विकास योजना बनाई जायेगी। भारत की भौगोलिक संरचना में बसे जनजातीय क्षेत्रों में एक ही जगह सौ परिवारों का मिल पाना बहुत ही कठिन बात है। अतएव मजरे-टोलों में बसे आदिवासियों के लिये इस मसौदे में रखी न्यूनतम सौ परिवारों की शर्त को हटाया जाना चाहिये। ऐसा नहीं किये जाने पर आगामी विकास योजनाओं के नाम पर जनजातीय क्षेत्रों से लोगों का पलायन तो जारी रहेगा ही और उन्हें पुनर्वास और पुनस्र्थापन भी नहीं मिल पायेगा। प्रस्तावित अधिनियम में जमीन के मामले पर भी सिंचित और बहुफसलीय वाली कृषि भूमि के अधिग्रहण नहीं किये जाने की बात कही गयी है। जनजातीय क्षेत्रों में ज्यादातर भूमि वर्षा आधारित है और साल में केवल एक ही फसल ली जाती है। तो क्या इसका आशय यह है कि आदिवासियों की एक फसलीय और गैरसिंचित भूमि को आसानी से अधिग्रहीत किया जा सकेगा ? सरकार जिस तरह अब खुद कहने लगी है कि तेल की कीमतें उसकी नियंत्रण में नहीं है उसी तरह संभवतः इस तंत्र को सुधार पाना भी उसके बस में नहीं है। भूमि अधिग्रहण का यह प्रस्तावित कानून भी ऐसी ही बात करता है। किसी नागरिक द्वारा दी गई गलत सूचना अथवा भ्रामक दस्तावेज प्रस्तुत करने पर एक लाख रुपये तक अर्थदंड और एक माह की सजा का स्पष्ट प्रावधान किया गया है। गलत सूचना देकर पुनर्वास लाभ प्राप्त करने पर उनकी वसूली की बात भी कही गई है, लेकिन मामला जहाँ सरकारी कर्मचारियों द्वारा कपटपूर्ण कार्यवाही का आता है तो इस पर कोई स्पष्ट बात नहीं है। वहाँ पर केवल सक्षम प्राधिकारी द्वारा अनुशासनात्मक कार्यवाही करने भर का जिक्र आता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये कम दरों पर खाद्यान्न की उपलब्धता इस देश के गरीब और वंचित और उपेक्षित लोगों के पक्ष में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मौजूदा दौर में इस व्यवस्था को कई तरह से सीमित करने की नीतिगत कोशिशें दिखाई देती हैं। विस्थापितों के पक्ष में इस योजना के महत्व को सभी मंचों पर स्वीकार किया जाता है। लेकिन भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास का यह प्रस्तावित कानून ठीक इसी तरह पारित हो जाता है तो तमाम विस्थापित लोग सार्वजनिक वितरण प्रणाली की इस व्यवस्था से बाहर हो जायेंगे।

मसौदे में यह बात ठीक दिखाई देती है कि प्रभावित लोगों को पक्के घर बनाकर दिये जायेंगे। लेकिन इसका एक पक्ष यह भी होगा कि ये गरीबी की रेखा से अपने आप ही अलग हो जायेंगे क्योंकि यह आवास गरीबी रेखा में आने वाले मकान के मापदंडों से बड़ा होगा। ऐसे में उन्हें सस्ता चावल, सस्ता गेहूं और सस्ता केरोसीन उपलब्ध नहीं हो पायेंगे। जबकि ऐसे प्रभावित परिवारों, जो विस्थापन से पहले गरीबी रेखा की सूची में शामिल हैं, को पुनर्वास के बाद भी गरीबी की रेखा की सूची में यथावत रखना चाहिये। (सप्रेस)

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