Sunday, January 22, 2012

नापाक सियासत से उपजा संकट

नापाक सियासत से उपजा संकट


Saturday, 21 January 2012 11:17

पुष्परंजन 
जनसत्ता 21 जनवरी, 2012: मेमोगेट' की सुनवाई पर संभव है कि एक बार फिर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी को सर्वोच्च अदालत में हाजिर होना पड़े। लेकिन मेमोगेट के सूत्रधार मंसूर एजाज के 'भारत से जुड़े तार' क्या हैं? जिस व्यक्ति के कारण पाकिस्तान की सत्ता हिली हुई है, उसके भारतीय संपर्कों के बारे में पता नहीं क्यों चुप्पी है। मंसूर एजाज 2000 और 2001 के बीच दो बार दिल्ली और कश्मीर के चक्कर लगा चुके हैं। तब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी और मंसूर एजाज ने वादा किया था कि हम वाया वाशिंगटन और इस्लामाबाद, कश्मीर समस्या सुलझा लेंगे। मंसूर एजाज को वीजा के लिए हरी झंडी देने वाला अपना गृह मंत्रालय उस किस्से को याद करना नहीं चाहता। न ही तब के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्र और रॉ के प्रमुख एएस दुल्लत को मंसूर एजाज के यहां आने की तारीखें याद हैं।
अभी तो मंसूर एजाज को अदालत में यह साबित करना है कि वह सचमुच उस मेमो (पत्र) को लेकर वाइट हाउस गया था, जिसमें अमेरिकी सरकार से पाक प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने अनुरोध किया था कि सेना की ताकत कम करने में हमारी मदद करें। इसके लिए कथित रूप से मेमो तैयार करवाने वाले तत्कालीन पाक राजदूत हुसैन हक्कानी निपट चुके हैं। इन दिनों प्रधानमंत्री निवास में ही पनाह लेकर अदालत में गवाही के लिए पेश होते रहे हैं। हक्कानी को डर है कि बाहर रहने पर कहीं आतंकवादी उन्हें अल्लाह के पास न भेज दें। बुधवार को दिए बयान में पाकिस्तान के गृहमंत्री अब्दुल रहमान मलिक स्पष्ट कर चुके हैं कि मंसूर एजाज को स्विट्जरलैंड की राजधानी बर्न जाकर वीजा के लिए आवेदन करने की आवश्यकता नहीं है। वे वाशिंगटन से ही वीजा के लिए आवेदन करें, उन्हें फौरन इजाजत मिलेगी। 
मेमोगेट पर पचीस जनवरी को सुनवाई होनी है। ब्लैकबेरी बनाने वाली कंपनी ने मेमोगेट पर बातचीत वाले तथ्य देने से इनकार किया है। अमेरिका में शीर्ष अधिकारी पल्ला झाड़ चुके हैं, यह कह कर कि वे मंसूर एजाज को जानते तक नहीं। लेकिन मंसूर एजाज का दावा है कि अक्तूबर में लंदन के एक होटल में आईएसआई प्रमुख शुजा पाशा से वे मिले थे और मेमोगेट की तफसील उन्हें दी थी। इधर अटकलों का बाजार गर्म है कि शायद मंसूर एजाज पाकिस्तान आएं ही न। कहने का मतलब यह कि मंसूर एजाज के अदालत में हाजिर होने तक किस्सागोई होती रहेगी। 
अजब संयोग है कि उन्नीस जनवरी को उन्हीं जजों के समक्ष गिलानी पेश हुए, जिनकी फिर बहाली के लिए बहैसियत प्रधानमंत्री उन्होंने हस्ताक्षर किए थे। गुरुवार की सुनवाई से लगता है कि सर्वोच्च अदालत ने एक तरह से अपना 'अहं' ही शांत किया है। गिलानी ने कहा कि उनकी मंशा तौहीन-ए-अदालत की नहीं थी। राष्ट्रपति जरदारी को 'इम्युनिटी', यानी किसी कार्रवाई से विशेष छूट हासिल है और हम उसका पालन कर रहे थे। 
यूसुफ रजा गिलानी भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच करने वाली एजेंसी यानी राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो की ताकत बढ़ाते हैं और स्विस अधिकारियों को राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के खातों की जानकारी लेने के वास्ते पत्र लिखने की पहल करते हैं, तो संभव है कि पाकिस्तान में सुप्रीम कोर्ट से सरकार का टकराव कम हो। न्यायाधीश उस्मानी ने सही पूछा है कि अदालत कहे तो क्या सरकार स्विस अधिकारियों को पत्र लिखेगी। एक फरवरी को अगली सुनवाई से पहले सरकार के कदम का पता चल जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट में एक प्रधानमंत्री का जाना सचमुच ऐतिहासिक है। इसके लिए गठबंधन के नेताओं, पीपीपी के कार्यकर्ताओं को अदालत पहुंचने की आवश्यकता क्या थी? क्या सुप्रीम कोर्ट पर सरकार दबाव बनाना चाहती थी? प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी वैसे भी सोमवार को संसद में प्रस्तुत 'प्रो डेमोक्रेसी' प्रस्ताव के जरिए दुनिया को बता चुके थे कि जनता की इच्छा से हम सत्ता में हैं। तब गिलानी ने बार-बार कहा था कि पाकिस्तान में संसद सर्वोच्च है।  
यह बात ध्यान में रखनी होगी कि अदालत की अवमानना चर्चित मेमोगेट कांड के कारण नहीं हुई है। इस समय 'एनआरओ' पाक राजनीति का टाइमबम साबित हो रहा है। पांच अक्तूबर 2007 को पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ ने राष्ट्रीय सामंजस्य अध्यादेश (एनआरओ) लाकर आठ हजार इकतालीस नेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों को बचाने की कवायद की थी, जो भ्रष्टाचार, हवाला, हत्या, तस्करी और आतंकवाद जैसे आरोपों में फंसे हुए थे। इन भ्रष्टाचारियों में स्विस और दुनिया के दूसरे बैंकों में काला धन रखने वाले आसिफ अली जरदारी, बेनजीर भुट््टो, यूसुफ रजा गिलानी, रहमान मलिक, अल्ताफ हुसैन, फजलुर्रहमान से लेकर राजनयिक हुसैन हक्कानी जैसी बड़ी मछलियां शामिल थीं। 
पाकिस्तान में पहली जनवरी 1986 से लेकर बारह अक्तूबर 1999 तक इन लोगों पर बने सारे मामले उठा लेने की अनुशंसा 'एनआरओ' में की गई थी। जनरल मुशर्रफ पर उन दिनों सऊदी अरब, ब्रिटेन और अमेरिका का दबाव था कि तालिबान से मुकाबले के लिए बेनजीर भुट््टो कुनबे को पाकिस्तान लाने का मार्ग प्रशस्त किया जाए। वक्त का अजीब फेर है कि एनआरओ के जन्मदाता जनरल मुशर्रफ आज देश से बाहर हैं और दागी देश के अंदर। उन दिनों जब्त खातों से पैसे भी फटाफट निकाले गए।
सर्वोच्च अदालत एनआरओ को दो बार, बारह अक्तूबर


2007 और सोलह दिसंबर 2009 को, खारिज कर चुकी है।   ये दोनों आदेश तब और अब के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मुहम्मद चौधरी ने दिए थे। लेकिन दो साल तक सर्वोच्च अदालत को चुप रहने की जरूरत क्या थी? यह सत्य है कि पिछले चार वर्षों से सत्ता की पंजीरी खा रहे पाक नेताओं से आम जनता त्रस्त है। इसलिए मुख्य न्यायाधीश चौधरी को जनता का एक हिस्सा नायक मानता है। लेकिन पाकिस्तान में अदालतें भी दूध की धुली नहीं हैं। 
एक पाकिस्तानी एनजीओ 'पिलदात' ने 2007 में अपने शोध में निचली अदालतों के सोलह सौ जजों को बेनकाब किया था, जो परम भ्रष्ट थे। देश की सर्वोच्च अदालत पर शक करने वाले कहते हैं कि जरदारी-गिलानी जोड़ी को सत्ता से गिराने वालों के साथ कोई सौदा हुआ है। वे पूछते हैं कि अदालतें इतनी पाक-साफ हैं तो बलूचिस्तान और उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत पर सितम ढाने वाली पाक सेना के विरुद्ध कोई कार्रवाई क्यों नहीं होती? क्यों सेना के भ्रष्ट अफसर अदालत से बचे हुए हैं? 
लाहौर हाईकोर्ट में एक वकील ने सेना के दर्जन भर बड़े अफसरों के खिलाफ जांच कराने की अपील की थी। इनमें अवकाश प्राप्त एयर चीफ मार्शल अब्बास खटक पर चालीस मिराज विमानों की खरीद में कमीशन खाने, उनके बाद के एअर चीफ मार्शल फारूक  फिरोज खान पर चालीस एफ-7 विमानों में पांच प्रतिशत कमीशन लेने के आरोप भी थे। सेना में भ्रष्टाचार के इस बहुचर्चित मामले पर सुनवाई यह कह कर टाल दी गई कि यह हाईकोर्ट की हद में नहीं है। तो क्या सेना और अदालत पाकिस्तान में एक समांतर सत्ता बनाए रखने के लिए यह सारा खेल कर रही हैं? 
इस सारे फसाद की जड़, राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी पर अभी कोई हाथ नहीं डाल रहा। 'मिस्टर टेन परसेंट' कहे जाने वाले जरदारी की देश में चालीस परिसंपत्तियां हैं, जिनमें छह चीनी मिलें हैं। देश से बाहर ब्रिटेन में जरदारी की नौ, फ्रांस में एक, बेल्जियम में दो, अमेरिका में नौ संपत्तियां हैं। इसके अलावा दुबई समेत पूरे संयुक्त अरब अमीरात में दर्जनों आलीशान भवन, मॉल और टॉवर मिस्टर टेन परसेंट ने खरीद रखे हैं। विदेशों में जरदारी की चौबीस कंपनियों के नाम, पते और सत्ताईस बैंक खातों के ब्योरे उनके विरोधियों ने नेट पर डाल रखे हैं। 
अगर ये तथ्य सही हैं तो तहरीके इंसाफ पार्टी के नेता इमरान खान का यह कहना भी सही है कि चोर-डाकू पाकिस्तान की सत्ता चला रहे हैं। गिलानी राष्ट्रीय सामंजस्य अध्यादेश (एनआरओ) को अमल में नहीं लाने के कारण कठघरे में हैं। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी सचमुच कठोर थी कि प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी भरोसे के लायक नहीं हैं। लोगों का कयास था कि अनुच्छेद 63-1 जी के तहत प्रधानमंत्री को बर्खास्त करने का आदेश अदालत न दे-दे। पर ऐसा कुछ हुआ नहीं।
पाकिस्तान मुसलिम लीग (नवाज) के नेता नवाज शरीफ समय से पहले चुनाव कराने के लिए देशव्यापी दौरे पर हैं। ऐसी ही बेचैनी तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के नेता इमरान खान में है। इमरान खान को लगता है कि वे देश के बिंदास प्रधानमंत्री बनेंगे। इसी रौ में इमरान इस बात से इनकार करते हैं कि जनरल मुशर्रफ से उन्होंने गुपचुप हाथ मिला लिया है। दूसरी ओर, गृहमंत्री रहमान मलिक ने खम ठोक कर कहा है कि मुशर्रफ आकर देखें, हम उन्हें गिरफ्तार करते हैं कि नहीं। लंदन में स्व-निर्वासन में रह रहे मुशर्रफ ने फिलहाल पाक आना टाल दिया हैं। मुशर्रफ की पार्टी आॅल पाकिस्तान मुसलिम लीग (एपीएमएल) के प्रवक्ता फवाद चौधरी के इस्तीफे से हालत और खस्ता हो गई है। 
चुनाव तक गठबंधन में शामिल पार्टियों से जरदारी-गिलानी का कैसा समीकरण रहेगा, यह बड़ा सवाल है। इनमें अवामी नेशनल पार्टी (एएनपी) के प्रमुख असफंदयार वली, पाकिस्तान मुसलिम लीग, कायदे आजम (पीएमएल-क्यू) के चौधरी शुजात हुसैन, मुत्तहिदा कौमी मूवमेंट (एमक्यूएम) के नेता फारूक  सत्तार और जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम को तोड़ने के मिशन में नवाज शरीफ लगे हुए हैं। 
प्रश्न यह है कि अदालत बनाम संसद के पाकिस्तान के प्रकरण में भारत के लिए क्या सबक हो सकता है? पाकिस्तान की राजनीति से कुछ 'सबक' लेने के लिए इस समय भारतीय सांसदों का एक शिष्टमंडल पाकिस्तान में है। यह वह समय है, जब अपने यहां भी सेनाध्यक्ष जन्मतिथि विवाद के साथ सुप्रीम कोर्ट की शरण में हैं। मणिशंकर अय्यर, सुप्रिया सुले, यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा, राजनीति प्रसाद, सैयद शाहनवाज हुसैन, असदुद्दीन ओबैसी जैसे दिग्गज सांसदों को पाकिस्तान आमंत्रित करने और सत्रह जनवरी को प्रधानमंत्री गिलानी के साथ उनकी विशेष बैठक कराने में उसी एनजीओ 'पिलदात' ने पहल की है, जिसने सोलह सौ जजों के भ्रष्ट होने की बात अपने शोध में कही थी। इस बिना पर क्या यह सवाल नहीं बनता कि पिलदात जैसे एनजीओ का जरदारी और गिलानी इस्तेमाल कर रहे हैं? 
भारतीय विदेशमंत्री एसएम कृष्णा पड़ोस पर टिप्पणी करें, न करें। पर एक दूसरे पर असर तो होगा ही। जिस तरह पाकिस्तान की जनता 'कोलावरी डी' गाने की पैरोडी बना कर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बुराइयों पर आवाज उठा रही है, उसी सुर में आने वाले दिनों में अदालत बनाम संसद जैसी हालत पूरे दक्षिण एशिया में बन सकती है। इस पर बहस के लिए सुधीजनों को तैयार रहना चाहिए!

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