जुमार के मुहाने से उठी गुहार
जुमार नदी के इस मुहाने पर बैठकर भविष्य में नौजवान व्यापार का आचार विचार सीखेंगे. आनेवाले कल में यहां आईआईएम की एक शाखा इस जुमार नदी के मुहाने पर भी नजर आयेगा और कानून सिखानेवाला एक संस्थान भी खोला जाएगा. कोई आपत्ति किसी को नहीं होनी चाहिए. है भी नहीं. लेकिन भविष्य के लिए ये जरूरी काम वर्तमान को बिगाड़ कर किया रहा है. जुमार नदी के मुहाने पर बसे नगड़ी गाँव के लोग पिछले नब्बे दिनों से जमीन जाने से बचाने की जी जान से कोशिश कर रहे हैं. लेकिन जैसे उनके जी जान की कोई कीमत नहीं है वैसे ही उनकी बेशकीमती जमीन की भी यही कीमत है कि यहां भविष्य की वह पीढ़ी तैयार की जाए जो व्यावसायिक लूटमार की शिक्षा ले सकें. शायद यही कारण है कि जुमार के मुहाने से उठनेवाली गुहार को सरकार नब्बे दिनों से अनसुना किये बैठी है.
योजना यह है कि लगभग २२७ एकड़ कृषि योग्य जमीन जिसे जोतकर नगड़ी गांव में रहने वाले आदिवासी और मूलवासी अपना और पूरे परिवार का भरणपोषण करते थे, उस जमीन पर भारतीय प्रबंधन संस्थान और विधि संस्थान खोला जाएगा. खेत में उगनेवाले गेहूं धान की जगह व्यापार और कानून उगाने की योजना है. इस उगाही में कुछ लोग उजड़ जाएं तो उजड़ जाएं, सरकार को अतीत होते गांव से ज्यादा चिंता आनेवाले उस भविष्य की है जो यहां आकार लेगा.
सरकार की उजाड़नेवाली मंशा साफ है इसलिए प्रशासनिक व्यवस्था चाक चौबंद कर दी गई है. अर्धसैनिक पुलिस बल की मदद से सरकार नगड़ी के खेत पर बलपूर्वक दीवार खड़ी करती जा रही है। यही नही पिछले ९० दिनों से प्रसाशन ने गांववालों के विरोध को लगातार कुचलने का काम किया है, पर इन सब के बावजूद भी नगड़ी के सैकड़ो ग्रामीण लोग जमीन पर बांस-बल्ली और पेड़ की टहनी, झाड़-झंखाड़ डालकर धरने पर बैठ कर अपने स्वतंत्रता और स्वायत्तता को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे है. भीषण गर्मी ने जरूर हरे बांस के रंग को भूरा कर दिया हो और हरे शाल के पत्ते सूख कर झड़ने लगे हो, पर फिर भी ये ग्रामीण अपने सामूहिकता के साथ तेज़ चिलचिलाती धुप में भी प्रतिरोध के स्वर को जीवंत रख, आई.आई.एम. प्रसाशन और सरकार के गलत नीतियों के खिलाफ लड़ रही है.
अपनी जमीन को बचाते हुए दो आदिवासी महिला शहीद हो गयी
कुछ दिन हुए है उनके बीच की एक संघर्षशील साथी मुंदरी ओरांव शहीद हो गयी. मुंदरी एक आम आदिवासी महिला और छोटे छोटे चार बच्चों की माँ थीं जो अपने गाँव नगरी की ज़मीन बचने के लिए ४ मार्च से दिनरात धरना में शामिल रहती थीं, पूरे संकल्प के साथ की गाँव की रक्षा करेगीं. तीन दिन पहले ही उसे लू लगी और उनकी मृत्यु हो गयी. मुंदरी के तीन एकड़ ज़मीन जिस पर वो सब्जी और धान की खेती किया करती थी, सरकार ने जबरन उस जमीन को छीन लिया जिसके बाद से मुंदरी के पति को रिक्शा खींचने के लिए मज़बूर होना पड़ा. नगरी में जमीन को बचाए रखने की कोशिश में २१ मई को एक और ७० साल की संघर्षशील महिला पोको उरावं की लू लगने से मौत हो गयी. वो भी पिछले तीन महीनो से अपनी जमीन को बचाये रखने के लिए हर दिन धरना स्थल पर आती थी और घंटो बैठती थी.
जल जंगल जमीन और आदिवासी विरोधी सरकार
अक्सर सर्वहारा और सत्ता वर्ग के बीच संघर्ष में मौत आम परिघटना बन जाती है. हर मौत आंदोलन को गति, उग्रता और लडने की पवित्र शक्ति प्रदान करती है. हेलीकॉप्टर हादसे के सदमे में उलझे अर्जुन मुंडा को शायद ये बातें पता न हों कि रांची से सटे नगड़ी गाँव, कांके ब्लोक में ४ मार्च से लोग धरना पर बैठे हैं. झारखण्ड के जन प्रतिनिधि, रांची के सांसद और कांके विधानसभा के जन प्रतिनिधि अभी तक इनकी तरफ झांकने नहीं आये हैं. झारखण्ड बनने के बाद से अभी तक राज्य सरकार ने यहां के जल, जंगल जमीन और खनिज के दोहन-शोषण के लिए राज्य के छोटे दरवाजें को और भी बड़ा बनवाया है ताकि यहां पूंजी के आने और खनिज तथा मुनाफा के जाने का रास्ता सुगम हो जाए। इसी का नतीजा है की अभी तक राज्य सरकार, अफसरों और यहाँ के जनप्रतिनिधि के मिलीभगत के कारण छोटे बड़े १०४ से भी ज्यादा एम्ओयू पर हस्ताक्षर हुए है जिसमे टाटा, जिंदल, भूषण, मित्तल, आधुनिक ग्रुप जैसी बड़ी कंपनिया है जो झारखण्ड की हज़ारो एकड़ कृषि योग्य जमीन और जंगल को तबाह कर देगी.
यह बतलाने की जरूरत नहीं है कि झारखण्ड 5वीं अनुसूचि के अंतर्गत आनेवाला राज्य है। जिसकी आबादी आदिवासी बहुल है। राज्य सरकार समय-समय पर पांचवीं अनुसूचि लागू करने का वादा भी दावे के साथ करती रहती है। किन्तु विधानसभा की नाक के नीचे और राज्य के आकाओं के द्वारा ही यहाँ के आदिवासियों की जमीन गैरकानूनी तरीके से जबरन कब्जा की जाती है वह भी आदिवासी विकास, पर्यावरण सुरक्षा तथा न्यूनतम विस्थापन के नाम पर। राज्य की आदिवासी मूलवासी जनता राज्य सरकार के इस सच तथा उसके ढोंग को समझ चुकी है. झारखण्ड विकास के नाम पर अपने विस्थापन और बरबादी के विरोध में लगातार संघर्ष का रही है। आदिवासियों की जमीन की रक्षा करने के लिए बना सी.एन.टी कानून भी राज्य सरकार और राजनीतिक दलों के निशाने पर है यहाँ की ज्यादातर राजनीतक पार्टिया सी.एन.टी कानून में संसोधन के पक्ष में अपना समर्थन देते नज़र आती है. सरकार ने रांची के कांके पिठोरिया क्षेत्र में रांची के विस्तार के लिए ग्रेटर रांची बनाने की योजना बनायीं है जो नगड़ी के पास का इलाका ही है, यही से हज़ारो पेड़ काट और जंगल उजाड़ कर रांची का चक्कर लगाने वाली रिंग रोड की निर्माण की प्रक्रिया चल रही है. एन.एच ७५ और एन.एच ३३ के बीच में और उसके आसपास में सरकार एक साजिश के तहत लगभग आदिवासियों और मूलवासियो की ३०,००० हजार एकड़ जमीन हथियाने की साजिश में लगी हुई है.
नगड़ी के सवाल पर रांची की मीडिया में चुप्पी
पिछले तीन महीने में रांची की मीडिया नगड़ी पर खामोश है, इसका प्रमाण रांची के खबरों को देख कर लग जाता है की राज्य की मीडिया शासक-शोषक पूंजीपति वर्ग के इशारे वर नाचती है. धुप में संघर्ष कर रहे नगड़ी के लोगो के जमीन के सवाल प्राथमिकता में रख कर उठाना मुनासिब नहीं समझा. जलती हुई धुप में आन्दोलन करते हुए मुंदरी उरावं और पोको उरावं की लू लगने से मौत हो जाती है तब भी रांची की मीडिया चुप्प रहती है और उसके लिए उन दोनों महिलाओ का संघर्ष कोई खबर नहीं बन पाता है. पर वही जब बार एसोसिएशन झारखण्ड 'ने प्रस्तावित स्थल पर निर्माण जल्द शुरू करवाने के लिए झारखण्ड हाई कोर्ट में याचिका दर्ज कर दी और 30 अप्रैल 2012 को झारखण्ड हाईकोर्ट के चीफ जस्टीस न्यायमूर्ति प्रकाश टाटिया और न्यानमूर्ति अपरेश कुमार सिंह की खंडपीठ द्वारा प्रस्तावित स्थल पर नगड़ी में निर्माण करने का आदेश दिया. तब यह सुचना रांची की मीडिया में प्राथमिकता से खबर बनती है. मीडिया ने नगड़ी की आदिवासियों और मूलवासियो की सामाजिक समूहिकता को नष्ट करते हुए स्थानीय सवालों, संस्कृतियों को गुमराह करने लिए बेहद ही संतुलित तरीके से नगड़ी के आन्दोलन को विकाश विरोधी शक्ल देने की कोशिश की है. झारखण्ड में हमेसा से मीडिया शासक-शोषक पूंजीपति वर्ग के इशारे वर नाचती है और इसके हित में काम करती है. मीडिया में ज्यादातर लोग मालिक,संपादक और पत्रकार लोग या तो बाहरी है या आदिवासी विरोधी है जिनका सरोकार आदिवासी और जल जंगल जमीन से कम ही होता है.
जब हम नगड़ी में थे तो उस दिन भी तेज लू चल रही थी. सुबह के १० बजे इतनी गर्म हवा चल रही थी कि चेहरे को ढक कर बैठना पड़ा और १२ बजते ही हवाओं में आग जैसी गर्मी का एहसास होने लगा था. इतने भीषण गर्मी के बावजूद भी गाँव के लोग उसी अस्थायी ठिकाने में ४ मार्च २०१२ से धरने पर बैठे है. तीन महीना, २१६० घंटे या, ९० यही गर्म दिन और बंदूकों के साये में डरतीं ९० रातो से जायदा बीत रहे है. उस गर्म हवा की थपेड़ो ने उन दो महिलाओ की जान ले ली वो आग की लपटों जैसी हवा को बर्दास्त नहीं कर पायीं और वो नगड़ी की संघर्ष में शहीद हो गयी. अब उनके बच्चे वहां रोज आते है और जमीन बचाने के संघर्ष में शामिल होते है. सवाल सिर्फ इतना है की क्या ३०० गरीब परिवारों के प्रति सरकार,मीडिया, शहरी क्षेत्र में रहने वाली आबादी सम्बेदंशील नहीं हैं ,क्या क्योंकि वे गरीब हैं, क्योकि वे आदिवासी है जो माटी की रक्षा करने के संकल्प के साथ जीता और मरता है?
लेकिन सरकार और मीडिया की इस बेरुखी के बाद भी नगडी के लोग निराश नहीं है. उनकी शक्ति उनके सरना झंडे की पवित्रता में सिमट आई है. एक झंडा किसी आंदोलन को कितनी शक्ति दे सकता है? यह सवाल पूरे इलाके में फैला है। गर्म हवा के थपेड़ों में लहराते-फहराते सैकड़ों सरना झंडे ग्रामीणों को यह दिलासा तो देते ही हैं कि भले ही सरकार उनके साथ न हों, पर सर्वोच्च शक्ति उनके साथ खड़ी है. नगड़ी में मांदर की धुन और कंधे पर लटकाये तीर धनुष आदिवासियों की प्रतिरोध का संकेत दे रही है जो अपनी जमीन को किसी भी स्थिति में बचाये रखेंगे. नगड़ी के सैकड़ों ग्रामीण जिस जमीन को बचाने को संघर्षरत हैं, वहां पहुंचकर विकास बनाम अन्याय का सवाल समानांतर रूप से खड़ा दिखता है. यह अन्याय वहीं नहीं हो रहा है जहां विकास की तेज आंधी बह रही है. जहां विकास की मंद बयार है वहां भी उसी तरह विनाश और विखराव हो रहा है. आदिवासियों के लिए बने राज्य में आदिवासियों की इससे ज्यादा दुर्दशा और क्या होगी? समझ में नहीं आ रहा है.
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