Saturday, July 7, 2012

सरकारी अस्पताल का एक संक्षिप्त अनुभव

सरकारी अस्पताल का एक संक्षिप्त अनुभव


एक महिला अपने पेट में चार दिन का मरा बच्चा लिए फिर रही थी. वो दर्द से कराहती रही, लेकिन कोई भी उसकी परवाह करने वाला नहीं था. थक-हारकर जब उस बेचारी को कुछ न सूझा तो वह सबके सामने फफककर रो पड़ी. मरीजों के हल्ला करने पर  डाक्टर ने चेक करने जहमत उठाई...

मनु मनस्वी

'डाक्टर भगवान का रूप होता है' - न जाने कितनी बार ये लाइनें लिखी और पढ़ी जा चुकी हैं, लेकिन वर्तमान में डाक्टरी महज एक व्यवसाय बनकर रह गई है. मरीजों के प्रति संवेदना किस चिड़िया का नाम है, यह इन्हें नहीं पता. यह तल्ख हकीकत यदि खुली आंखों से देखनी हो तो एक बार देहरादून के प्रसिद्ध दून महिला चिकित्सालय का रुख कर लें. गर्भ में पलती नन्हीं जिंदगी और उसे जन्म देने वाली मांओं के लिए ये अस्पताल किसी टार्चर रूम से कम नहीं. चैकअप के लिए अपनी बारी का इंतजार करती दर्द से बिलबिलाती गर्भवतियों की लंबी कतारें संवेदनशून्य महिला डाक्टरों की स्याह तस्वीर दिखाने को पर्याप्त हैं.

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दून महिला अस्पताल

एक समाचारपत्र की चाकरी बजाने वाला ये अदना सा पत्रकार जब अपनी गर्भवती पत्नी को लेकर दून अस्पताल पहुंचा तो गुमान हुआ कि क्यों लोग अक्सर 'ये तो भई सरकारी काम है, देर तो लगेगी ही' का जुमला इस्तेमाल करते हैं. हां बात यदि सरकारी जॉब की हो तो लोगों को अक्सर कहते सुना जाता है कि 'सरकारी नौकरी की तो बात ही कुछ और है'. ये दोनों ही जुमले सरकारी मशीनरी की पोल खोलने को काफी हैं. यानी नौकरी तो सरकारी चाहिए, लेकिन इस भ्रष्ट मशीनरी को बदलने को कोई तैयार नहीं. 

अब एक नजर अस्पताल के हाल पर. मैं अपनी पत्नी को लेकर घंटों उसका नाम पुकारे जाने का इंतजार करता रहा. कइयों ने कहा भी कि आप तो पत्रकार हैं, आप तो धड़ल्ले से भीतर जा सकते हैं. लेकिन क्या करें कोढ़ में खाज यह है कि एक तो मैं पत्रकार हूं, दूसरा ईमानदार. फायदा उठाना कभी सीखा ही नहीं. सो यूं ही अपनी बारी की प्रतीक्षा में घंटों बैठा रहा. एक महिला अपने पेट में चार दिन का मरा बच्चा लिए फिर रही थी. वो दर्द से कराहती रही, लेकिन कोई भी उसकी परवाह करने वाला नहीं था. थक-हारकर जब उस बेचारी को कुछ न सूझा तो वह सबके सामने फफककर रो पड़ी. मरीजों के हल्ला करने पर कहीं जाकर डाक्टर ने उसे चैक करने जहमत उठाई.

डिलीवरी से पूर्व गर्भवतियों को जिस जनरल वार्ड में रखा (ठूंसा) जाता है, उसकी स्थिति ये है कि एक बैड पर दो-दो महिलाओं (कभी-कभी तो तीन-तीन भी) को किसी तरह एडजस्ट करना पड़ता है. टॉयलेट की स्थिति ऐसी कि घुसते ही उबकियां आने लग जाएं. माइक द्वारा एनाउंसमेंट कर महिलाओं को लैबर रूम में बुला तो लिया जाता है लेकिन डाक्टर और नर्सें आराम से उन्हें घंटों लिटाकर खुद मजे से सोती रहती हैं. जब कोई तीमारदार हल्ला करता है, तभी वे उठने की जहमत उठाती हैं और अपनी नींद टूटते देख लड़ने को उतारू हो जाती हैं. 

वरना तो लाख नगाड़े पीटो, इनज कुंभकर्णों की नींद टूटने से रही. हां, गेट पर उन्होंने गार्ड जरूर बिठा रखे हैं, जो तीमारदारों पर यूं हावी होते हैं, मानों अस्पताल आकर उन्होंने कोई गुनाह कर दिया हो. गार्ड तीमारदारों को मरीज की देखभाल के लिए के पास फटकने तक नहीं देता और डाक्टर उन्हें देखती नहीं. अब ऐसे में तो मरीज इस सरकारी अस्पताल में आने पर अपना सिर ही पीट सकता है. 

खैर, मेरी पत्नी की डिलीवरी बड़ी कठिनाइयों के बाद जैसे-तैसे निपट गई. पुत्री प्राप्त हुई और मैं उसे लेकर घर आ गया. मासूम की सूरत देखकर मैं अस्पताल के सारे कड़ुवे अनुभव भूल गया. वैसे भी भूल जाना हिन्दुस्तानियों की फितरत रही है. मेरे बाद बाकी महिलाएं किस हाल में हैं, पता नहीं, पर सुकून की बात यह रही कि आशा कार्यकत्रियों का व्यवहार तमाम विसंगतियों के बावजूद सहयोगात्मक रहा. हां कुछ आशाएं अपने साथ आई गर्भवतियों को समझाती नजर आईं कि अपना पता ग्रामीण क्षेत्र का ही लिखवाना, वरना उन बेचारियों का कमीशन मारा जाएगा.

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मनु मनस्वी पत्रकार हैं.

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