संघर्ष और सरोकार को उम्र कैद
राजकीय दमन का विरोध, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट के खिलाफ संघर्ष, ठेकेदारों, माफियाओं के खिलाफ कलम उठाना और लूट की व्यवस्था की जगह नयी जनपक्षीय व्यवस्था के निर्माण के लिए संघर्ष करना क्या अपराध है। क्योंकि अदालती फैसले में ये बातें अपराध मानी गयी हैं...
अजय प्रकाश
पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद और उनके पति विश्वविजय को इलाहाबाद की एक निचली अदालत ने माओवादी आंदोलन से जुड़ी किताबें पढ़ने, माओवादियों से जुड़े होने और उनसे सहानुभूति रखने के आरोप में 45-45 साल के कारावास की सजा सुनायी है। अदालत ने सजा के साथ आर्थिक दंड भी लगाया है। आठ जून को आये इस फैसले को देश भर के मानवाधिकार संगठनों ने गैर-लोकतांत्रिक कहा है। जनसंगठनों और स्वयंसेवी संगठनों में इस फैसले को लेकर रोष है और विरोध-प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है। उत्तर प्रदेश में पहली बार मानवाधिकार हनन का यह मामला एक बड़े सवाल के तौर पर उभरा है।

उत्तर प्रदेश एसटीएफ ने 6 फरवरी 2010 को इलाहाबाद रेलवे स्टेशन से दोनों की गिरफ्तारी की थी। सीमा और विश्वविजय की पूर्वी उत्तर प्रदेश में पहचान एक सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता की रही है। सीमा आजाद मानवाधिकारों के लिए संघर्ष करने के साथ-साथ पंजीकृत मासिक हिंदी पत्रिका "दस्तक' का संपादन भी करती रही हैं, जबकि विश्वविजय किसानों और खेत-मजदूरों के बीच एक राजनीतिक संगठनकर्ता के बतौर काम करते हैं। सन् 1992 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान वामपंथी छात्र राजनीति से जुड़े विश्वविजय अपने दौर के लोकप्रिय छात्र नेता रहे हैं। मगर सीमा और विश्वविजय के मामले में अदालत की राय जुदा है।
अदालत के मुताबिक सीमा और विश्वविजय प्रतिबंधित संगठन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) की गतिविधियों में शामिल होकर देश के खिलाफ षड्यंत्र रचने में लगे थे। अदालत ने पुलिस द्वारा मुहैया करायी गयी मार्क्सवादी-माओवादी किताबों, पत्रिकाओं, पर्चो, गवाहों और मोबाइल कॉल्स को आधार माना है। अदालत ने दोनों को देश के लिए खतरनाक मानते हुए 8 जून को यूएपीए की धारा 13/18/20/38/39 और आइपीसी की धारा 120बी/121 के तहत 45-45 साल की सजा सुनायी है और 75-75 हजार रुपया जुर्माना लगाया है। अदालत ने सजा में सिर्फ इतनी नरमी बरती है कि सभी धाराओं को एक साथ चलाने का आदेश दिया है।
सीमा के वकील रवि किरण जैन कहते हैं, "निचली अदालत का यह फैसला तब आया है, जब पिछले वर्ष इसी तरह के आरोपों में गिरफ्तार किये गये मानवाधिकार कार्यकर्ता और पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ बिनायक सेन को सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत देकर राहत दी। सर्वोच्च न्यायालय ने दो टूक कहा था कि माओवादी साहित्य रखना-पढ़ना और पार्टी से जुड़ना या सहानुभूति रखना अपराध नहीं है।' सीमा के एक और वकील हैदर अली बताते हैं, "जिरह के दौरान हमने अदालत को बताया था कि इस तरह के मामले में बिनायक सेन भी आरोपित थे, लेकिन अदालत ने उसे अन्य मामला कहकर खारिज कर दिया।'
"सीमा-विश्वविजय रिहाई मंच' में शामिल संगठन "भारत का लोकजनवादी मोर्चा' के संयोजक अर्जुन प्रसाद सिंह अदालत के साठ पेज के फैसले का हवाला देते हुए कहते हैं, "क्या जनवादी पत्रिका निकालना या मार्क्सवादी-माओवादी साहित्य पढ़ना अपराध है? छात्रों, किसानों, मजदूरों, अल्पसंख्यकों, दलितों-आदिवासियों को संगठित करना और उनके ऊपर होने वाले जुर्म के खिलाफ आवाज उठाना अपराध है। या फिर राजकीय दमन का विरोध, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट के खिलाफ संघर्ष, ठेकेदारों, माफियाओं के खिलाफ कलम उठाना और लूट की व्यवस्था की जगह नयी जनपक्षीय व्यवस्था के निर्माण के लिए संघर्ष करना अपराध है। क्योंकि अदालती फैसले में ये बातें अपराध मानी गयी हैं और इस आधार पर सीमा-विश्वविजय देश के लिए बड़ा खतरा हैं।'
'पुलिस डायरी पर जज की मुहर'
उप्र पीयूसीएल के उपाध्यक्ष एसआर दारापुरी से बातचीत
सीमा आजाद और उनके पति विश्वविजय की उम्रकैद पर संगठन का अगला कदम क्या होगा?
पीयूसीएल की संगठन सचिव सीमा आजाद को दी गयी सजा के खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिका दायर की जाएगी। इस कानूनी लड़ाई में हम सरकार से मांग करेंगे कि यह मामला झूठा है और सरकार सीमा आजाद पर लगाये गये आरोपों को वापस ले।
आपका संगठन विश्वविजय के सवाल को हाशिये पर क्यों रखता है?
सीमा उत्तर प्रदेश पीयूसीएल में सदस्य हैं और संगठन को उनके बारे में पूरी जानकारी है, इसलिए स्वाभाविक तौर पर हम उनका मसला पुरजोर तरीके से उठा रहे हैं। हमारी जानकारी में विश्वविजय पर लगे आरोप भी निराधार हैं। अगर सीमा मामले में अदालत या सरकार कोई कार्यवाही करती है तो इसका लाभ विश्वविजय को भी मिलेगा। बिनायक सेन के केस में जब उन्हें सर्वोच्च न्यायालय से जमानत मिल गयी तो उनके साथ सहअभियुक्त रहे कोलकाता के व्यापारी पीयूष गुहा को भी जमानत मिली। हालांकि विनायक की रिहाई में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश मारकंडेय काट्जू की बड़ी भूमिका थी। काट्जू नहीं होते तो शायद इतनी जल्दी यह फैसला नहीं आता।
अदालती विलंब का कोई अनुभव?
सीमा के ही मामले में दो साल तक उसकी जमानत याचिका की सुनवाई नहीं की गयी। फैसले का समय आया तो सुनवाई कर रहे जज का तबादला कर दिया गया। हालत यह है कि निचली अदालतों से लेकर बड़ी अदालतों तक फैसले न्यायाधीश के विवेक से नहीं बल्कि राज्य के दबाव में होने लगे हैं। कई मामलों में न्यायाधीश ऐसे फैसले करते हैं मानो पुलिस डायरी पर मुहर लगा रहे हों। बिनायक सेन मामले में छत्तीसगढ़ सरकार उनका केस उसी जज की बेंच पर ले जाती थी जो बिलासपुर हाईकोर्ट में पहले एडवोकेट जनरल रह चुका हो।
सीमा आजाद को सजा होने से पहले पीयूसीएल ने इसे गंभीरता से क्यों नहीं लिया?
उस समय उनकी कानूनी मदद ही की जा सकती थी, जो पीयूसीएल ने की। हमारे पदाधिकारी रवि किरण जैन ने सीमा का मुकदमा लड़ा और उच्च न्यायालय में भी वे इस मामले को देखेंगे। संगठन को उम्मीद थी कि सीमा के खिलाफ जब कोई सबूत नहीं है तो वह छूट जायेंगी। लेकिन अब लगता है कि सिर्फ अदालत पर भरोसा करना हमारी गलती थी।
सीमा आजाद को आजीवन कारावास की सजा सुनाये जाने के बाद पुलिस की जांच का उल्लेख करते हुए सीमा के भाई सीमांत बताते हैं- पुलिस दो बार सीमा और विश्वविजय को रिमांड पर लेने में असफल रही। वह तीसरी बार गैरकानूनी तरीके से रिमांड पर लेने में सफल हो गयी। रिमांड के दौरान विश्वविजय और सीमा (पति-पत्नी) को पुलिस उनके किराये के उस कमरे में ले गयी जहां वे गिरफ्तारी से पहले रहा करते थे। पुलिस ने स्वतंत्र गवाह के तौर पर मेरे पिता और हमारे एक पड़ोसी को बुलाया (हालांकि यह गैरकानूनी है)। पुलिस को वहां से कुछ किताबें, दस्तक पत्रिका और कुछ पर्चे मिले। बरामदगी की पुष्टि में मेरे पिता से दस्तखत भी कराया गया। लेकिन थाने ले जाकर पुलिस ने बरामदगी के कागज के साथ छह पेज का माओवादी पार्टी का एक दस्तावेज संलग्न कर दिया। अदालत में दस्तावेज दिखाते हुए पुलिस ने कहा कि यह है सीमा और उसके पति के माओवादी होने का सबूत, जिस पर उनके पिता और विश्वविजय के ससुर ने हस्ताक्षर किये हैं। इस घटना के बाद मेरे पिता को गहरा सदमा लगा। वे हर रोज घुटते हैं और जवाब नहीं ढूंढ़ पाते कि पुलिसिया साजिश के शिकार वे कैसे हो गये।' सीमांत आंखों में आंसू लिये आगे कहते हैं, "जो पुलिस साजिश करके एक बाप को ही बेटी के खिलाफ गवाह बना देती हो और अदालत उस पर प्रतिवादी की सुनता ही न हो, तो फैसला वही होगा जो मेरी बहन और उसके पति विश्वविजय के मामले में आया है।'
सीमा के परिजनों और मित्रों की ओर से जारी एक पत्र में अदालत के फैसले को अंतरविरोधी मानते हुए उस पर सात सवाल खड़े किये गये हैं। ये सवाल हैं- रिमांड के दौरान बरामद सीलबंद सामग्री जज की इजाजत के बगैर थाने में पढ़ने के बहाने पुलिस द्वारा खोला जाना, रिमांड की अवधि समाप्त होने के बाद भी रिमांड पर लिया जाना, सीमा की गिरफ्तारी के दिन यानी 6 फरवरी 2010 की मोबाइल कॉल्स की डिटेल पेश नहीं करना, गवाहों के अंतरविरोधों को नजरअंदाज किया जाना आदि।
सीमा की भाभी संगीता का कहना है कि अगर अदालत ने इन बिंदुओं पर गौर किया होता तो फैसला कुछ और ही होता। सीमा के पारिवारिक मित्र और हिंदी के साहित्यकार नीलाभ की राय में, "सीमा और विश्वविजय को दोषी ठहराकर सत्ता वर्ग विरोध की राजनीति करने वालों को चेतावनी देना चाहता है। इस अन्यायपूर्ण फैसले के खिलाफ लामबंदी कानूनी और सांगठनिक दोनों ही स्तरों पर होनी चाहिए।'
(पब्लिक एजेंडा से साभार)
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