रायसीना के रेस में, प्रणव मुखर्जी के भेष में
यह तय है कि देश के अगले राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ही होगें, लेकिन प्रणव मुखर्जी में ऐसा क्या है जिसने राष्ट्रपति पद के लिये प्रणव मुखर्जी का नाम पर यूपीए में दरार डाल दी? वामपंथियो के बीच लकीर खिंच दी? एनडीए में घमासान मचा दिया? राजनीति में छत्तीस का आंकडा रखने वाले बाला साहेब ठाकरे- नीतिश कुमार और मायावती-मुलायम प्रणव मुखर्जी के पीछे एकसाथ खडे हो गये? फिर इससे पहले देश के किसी वित्त मंत्री ने कभी राषट्पति बनने की नहीं सोची, लेकिन प्रणव ने राष्ट्रपति बनने को लेकर हर बार खुशी जाहिर की। वित्त मंत्री का पद राजनीति के लिहाज से प्रधानमंत्री के बाद का हमेशा सियासी पद माना गया। इसलिये जवाहरलाल नेहरु, मोरारजी देसाई, इंदिरा गांधी, चौधरी चरण सिंह, वीपी सिंह, राजीव गांधी और मनमोहन सिंह ऐसे प्रधानमंत्री है जो वित्त मंत्री भी रहे, लेकिन कभी किसी ने यह नहीं सोचा कि राष्ट्रपति बनकर कद्दावर नेता की पहचान बनायी जाये। फिर प्रणव मुखर्जी ने ऐसा क्यों किया?
यहां तक कि मनमोहन सिंह का नाम राष्ट्रपति के पद के लिये जैसे ही ममता बनर्जी ने लिया काग्रेस हत्थे से उखड गई और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो कुछ बोल भी नहीं पाये क्योकि अब के दौर में किसी इक्नामिस्ट प्रधानमंत्री को रायसीना हिल्स भेजने की बात कहने का मतलब है कि वह शख्स वित्त मंत्री, प्रधानमंत्री या राजनीति के लायक भी नहीं है। तो फिर प्रणव मुखर्जी ही क्यो और उनके पीछे खडी नेताओ की फौज क्यो?
जाहिर है इस सवाल का जबाव सीधा हो नहीं सकता है जहा यह कह दिया जाये कि प्रणव मुखर्जी ने 42 बरस की सियासत में जो कमाया उसी का पुण्य है कि हर कोई उन्हे समर्थन दे रहा है । असल में प्रणव मुखर्जी बनने और होने का सच इतना सरल नहीं है । इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रणव मुखर्जी प्रधानमंत्री बनना चाहते थे और खुद को काग्रेस के भीतर सबसे उम्दा मानते थे यह किसी से छुपा नहीं है । और इसी का खामियाजा उन्हे राजीव गांधी दौर में भुगतना पडा । जब राजीव गांधी की कैबिनेट में भी उन्हे जगह नहीं मिली । लेकिन प्रणव मुखर्जी को समझने के लिये और पहले की परिस्थितियो को देखना होगा । 1980 में जब जनता प्रयोग पूरी तरह फेल मान लिया गया और इंदिरा गांधी चुनाव जीती तो जीत की रैली में इंदिरा गांधी के साथ धीरुभाई अंबानी भी थे । और अंबानी को वहा तक और किसी ने नहीं इंदिरा गांधी के करीबी आर के धवन और प्रणव मुखर्जी ने ही पहुंचया था । दोनो नेताओ के साथ धीरुभाई अंबानी के संबंध अच्छे थे और धंधा बढाते धीरुभाई ने उसी वक्त राजनीति को लेकर मुहावरा गढा कि राजनीतिक सत्ता समुद्र की तरह है जिसपर जितना चढावा चढाओगे उससे दुगुना वह वापस कर देगी । वजह भी यही है कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अलग थलग पडे धीरुभाई अलग-थलग पडे । और इसी दौर में प्रणव मुखर्जी ने ही धीरुभाई अंबानी की बैठक राजीव गांधी के साथ दो मिनट का वक्त लेकर की। अब के संदर्भ में इस अतीत को टटोलने का मतलब क्या है , यह सवाल उठ सकता है । लेकिन मौका चूकि प्रणव मुखर्जी के ही इर्द-गिर्द है। तो समझना होगा कि इस दौर में प्रणव मुखर्जी का अंबानी के साथ निकट संबंधो का असर किस हद तक सरकार पर है और वह दल जो राजनीतिक लाइन छोडकर आज प्रणव के पीछे आ खडे हुये है उनपर भी है।
1991 में आर्थिक सुधार का रास्ता अपनाने के बाद सही मायने में मनमोहन सिंह ही वह शख्स है जिन्होने भारतीय अर्थव्यवस्था की उदारवादी लीक खिंची । अगर वाजपेयी सरकार के दौर में वित्त मंत्री रहे यशंवत सिन्हा और जसंवत सिंह के कार्यकाल को भी परखे तो भाजपा के संघी तेवर यानी स्वदेशी के राग से अलग मनमोहन की थ्योरी को ही ट्रैक - 2 कहकर अपनाया गया । इसके अलावा 1991 से 2009 तक मनमोहन सिंह और चिदबरंम की जोडी ही वित्त मंत्रालय को संबालती रही । लेकिन 2009 से 2012 यानी 26 जून तक प्रणव मुखर्जी के हाथ में वित्त मंत्रालय रहा । संयोग से इसी दौर में सरकार की किरकिरी अर्थव्यवस्थ को ना संबाल पाने को लेकर हुई। मंहगाई, भ्रष्ट्रचार, कालाधन, नेगेटिव रेटिंग, रुपये का अवनूल्यन, विकास दर में कमी, मुद्रास्फिति में तेजी सबकुछ उसी दौर में हुआ । सीधे कहे तो सरकार की साख दांव पर पहली बार यूपीए-2 के दौर में उसी वक्त लगी जब प्रणव मुखर्जी वित्त रहे । तो क्या यह कहा जा सकता है कि जिस रास्ते मनमोहन सिंह चलना चाहते थे प्रणव मुखर्जी के राजनीतिक अर्थशास्त्र ने उसमें मुशकिले पैदा की। चाहे चिदबरंम से प्रणव का खुला झगडा हो, या फिर ममता को साधने का प्रणव का बंगाली तरीका, या आर्थिक सुधार के रास्ते संसद के भीतर ही सहमति-असहमति के बीच प्रणव मुखर्जी का ही लगातार खडे रहना। हो सकता है इन परिस्तितियो में मनमोहन सिंह किसी भी तरह प्रणव मुखर्जी से निजात चाहते होगें।
लेकिन इसी दौर में मुकेश और अनिल अंबानी के झगडे और सुलह। गैस को लेकर रिलांयस [मुकेश अंबानी] को कठघरे में खडे किये जाने के बावजूद प्रणव मुखर्जी का अंबानी बंधुओ पर पितातुल्य माव उडेलना और खुले तौर पर बतौर वित्त मंत्री यह कहना कि वह मुकेश-अनिल को बच्चे से जानते है। यह संकेत सियासत के लिये क्या मायने रखते है यह प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने की दिशा में बढते कदम से अब समझा जा सकता है। बालासाहेब ठाकरे ने एनडीए की लाइन छोड प्रणव मुखर्जी के पक्ष फैसला देने में देर नहीं लगायी। यह जल्दबाजी प्रणव मुखर्जी के राजनीतिक कद की नहीं बल्कि बालासाहेब ठाकरे के नरीमन प्वांइट में धीरुभाई अंबानी के साथ गुजारे दिनो की यारी का नतीजा था। अस्सी के शुरुआती दशक में धीरुभाई अंबानी बालासाहेब के दरवाजे पर तब गये जब शिवसेना राजनीतिक वसूली के जरीये गुजराती उघोगपतियो को डराती थी। जब अंबानी ने ठाकरे के साथ बैठना शुरु किया तो कई मौके ऐसे आये जब प्रणव मुखर्जी, धीरुभाई और ठाकरे एक साथ बैठे। असल में राजीव गांधी की कैबिनेट में जगह ना मिलने के बाद प्रणव मुखर्जी ने शरद पवार की तर्ज पर राष्ट्रीय समाजवादी काग्रेस भी बनायी। शरद पवार उस वक्त महाराष्ट्र में सोशलिस्ट काग्रेस [इंडियन काग्रेस सोशलिस्ट ] बनाकर विपक्ष में बैठे हुये थे। पवार राजनीतिक तिकडम जानते थे तो मगाराष्ट्र में उनकी पैठ के आगे 1989 में राजीव गांधी को झुकना पडा और पवार की काग्रेस में वापसी पवार की शर्तो पर हुई। लेकिन प्रणव मुखर्जी राजनीतिक तिकडम से वाकिफ नहीं थे तो उनकी पार्टी का विलय काग्रेस में 1989 में हुआ और राजीव गांधी ने अपनी शर्तो पर प्रणव मुखर्जी की वापसी काग्रेस में करायी।
लेकिन महत्वपूर्ण है कि इस दौर में धीरुभाई अंबानी ही शरद पवार के पीछे खडे थे और प्रणव मुखर्जी को भी खुला सहयोग दे रहे थे। उसी दौर में यह जुमला भी चल पडा था कि देश में सबसे लोकप्रिय पार्टी रिलांयस पार्टी आफ इंडिया है। जिसके साथ खडे राजनीतिक दलो को आर-पोजेटिव ग्रुप माना गाया। तो विरोध करने वाले गुट को आर-नेगेटिव सेक्शन कहा गया। राजनीति की इस धारा को धीरुभाई के बाद मुकेश अंबानी ने ना सिर्फ जिलाये रखा बल्कि उसका विस्तार भी किया। जेडीयू के राज्यसभा सदस्य एनके सिंह नय दौर में राजनीतिक रुप से रिलांयस के करीब हुये। इससे पहले वित्त मंत्रालय में बतौर नौकरशाह वह अंबानी के राजनीतिक विस्तार से फैलते धंधो को देख ही रहे थे लेकिन रिटायमेंट के बाद नीतिश कुमार के लिये प्वाइंट पर्सन के तौर पर एनके सिंह दिल्ली की राजनीति में मौजूद है।
संयोग से बिहार में नीतिश की लोकप्रियता और एनडीए के भीतर नेता की शून्यता ने नीतिश का कद राष्ट्रिय तौर पर स्थापित किया है। खासकर नरेन्द्र मोदी की राजनीति को साधने के लिये नीतिश जिस तेजी से निकले है और काग्रेस के भीतर से भी नीतिश की बढाई खुले तौर पर होने लगी है इससे नीतिश में अब पीएम मेटल भी देखा जाने लगा है। और एन के सिंह दिल्ली में असल में नीतिश कुमार के लिये वही बिसात बिछा रहे है जहा जरुरत पडने पर रिलायंस पार्टी आफ इंडिया साथ खडे हो जाये। मुश्किल यह है कि राजनीतिक घमासान के इस दौर में मुलायम सिंह यादव की रीजनीतिक बिसात भी यही मान रही है कि अगर 2014 में यूपी में 50 से ज्यादा लोकसभा की सीट समाजवादी पार्टी जीत लेती है तो फिर सरकार उनके बिना बन ही नहीं सकती। और तब उनका नाम भी प्रधानमंत्री के तौर पर बढ सकता है। ऐसे में अनिल अंबानी से करीबी होने के बावजूद मुकेश अंबानी गुट में किसी का विरोध मुलायम के लिये राजनीतिक तौर पर फिट बैठता नहीं है। तो प्रणव का साथ देना मुलायम का यारी निभाना भी है और राजनीतिक जरुरत को पूरा करना भी। लेकिन राजनीतिक तौर पर सीपीएम की स्थिति यहा अलग है।
जिस तरह न्यूक्लियर डील के विरोध के बाद अमेरिकन लाबी ने सीपीएम को राजनीति तौर पर अलग थलग किया और बंगाल की राजनीति में ममता के अलट्रा लेफ्ट तेवर ने सीपीएम की वाम हवा निकाल दी उसमें राजनीतिक तौर पर खुद को बनाये रखने के लिये सीपीएम का राजनीतिक काग्रेसीकरण भी शुरु हुआ। जाहिर है आखिर में यह सवाल खडा हो सकता है कि अब जब प्रणव मुखर्जी सरकार से बाहर है तो मनमोहन सिंह राजनीतक तौर पर आर्थिक सुधार को हवा देगें या राजनीति-कारपोरेट गठबंधन यानी क्रोनी कैप्टलिज्म का नया चेहरा देखने को मिलेगा। क्योकि परिस्थितिया यही रही तो राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का राजनीतिक अनुभव 2014 का इंतजार नहीं करेंगा और रायसिना हिल्स पहली बार पूर्व वित्त मंत्री के जरीये एक नयी पहचान भी पायेगा। बस इंतजार किजिये।



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