Monday, September 16, 2013

मतांतर : आस्था और बाहुबल

मतांतर : आस्था और बाहुबल

Monday, 16 September 2013 10:45

अशोक लाल
जनसत्ता 15 सितंबर, 2013 : तरुण विजय का लेख 'दाभोलकर की देन' (1 सितंबर) शुरू तो अहम विषय पर हुआ है- दाभोलकर सही मायनों में आज के जमाने के शहीद हैं। लेकिन इसके एकदम बाद उनके विषय ने बिल्कुल अलग मोड़ ले लिया है। इस बात से भला किसी को क्या एतराज हो सकता है कि तरुणजी ने अपनी मां के प्रभाव में सनातन धर्म अपनाया। मगर अगले ही पैरे से उनका रुख बदल और विषय भटक जाता है। वे उन संस्थाओं या व्यक्तियों के प्रवक्ता हो जाते हैं, जिन्होंने लोगों की धार्मिक आस्थाओं को राजनीतिक बाहुबल में बदल दिया है। 'धर्म लोगों के लिए होता है, लोग धर्म के लिए नहीं होते', इस उसूल की धज्जियां उड़ाई हैं। 
वे निजी धार्मिक आस्था को समाज की रोजमर्रा जिंदगी से ज्यादा अहमियत देते हैं। मंदिरों में लगी बड़ी-बड़ी कतारों, मंदिरों के व्यस्त सड़कों पर होने की वजह से अगर आम जिंदगी में परेशानियां होती हैं, तो हों। आखिरकार अगर मुसलमान बीच समंदर में लाइनें बना सकते हैं, तो हिंदू बीच सड़क पर क्यों नहीं! आस्थावान का आम लोगों के जीवन से क्या सरोकार! उसका धर्म तो किसी आसमान वाले की तरफ बनता है, अपने साथ सड़क पर चलते हुए एक तुच्छ प्राणी के लिए नहीं! अगर दाभोलकर को तुच्छ प्राणियों से सरोकार है, तो चलो कोई बात नहीं। आस्थावान दरियादिल होते हैं! बाबरी मस्जिद ढहाए जाने का कानूनी जुर्म करते हुए इन्हीं आस्थावानों ने आम इंसान की मानसिकता में नफरत की ज्वालामुखी भड़काई। इन्हीं देशभक्तों ने देश के जान-माल को तहस-नहस किया और तर्क था- आस्था किसी भी कानून से बढ़ कर है। उसके झंडे तले सब कुछ जायज है। दाभोलकर विज्ञान और इंसानी बराबरी के हिमायती थे। उन्हें तो मरना ही था, क्योंकि वे आस्थावानों के बाहुबल को भूल गए थे। 
यह आस्थावानों की दरियादिली है कि वे एक नास्तिक को भी अपनी सफ में शामिल करने को तैयार हैं। मगर वह किसी दूसरे धर्म का अनुयायी बन गया है तो 'म्लेच्छ' हो गया है। हिंदू आस्थावानों में शामिल होने के लिए उसका 'शुद्धिकरण' जरूरी है, क्योंकि हिंदू सनातन धर्म बाकी सारे धर्मों से ज्यादा पवित्र है! 
बेचारे दाभोलकर! लेख में आगे चल कर उनकी महानता बताने के लिए उन्हें सावरकर जैसे 'सुधारवादी' के साथ खड़ा किया गया है- यह तो सनातनी दरियादिली की हद है! सावरकर की अनुयायी संस्थाएं हैं- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके परिवार वाली अन्य शाखाएं, जैसे विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल वगैरह। अब अगर इन संस्थाओं के कामों पर नजर डालें तो आपको क्या याद आएगा? जब इनका कीमती वक्त चौरासी कोसी अनियत परिक्रमाओं जैसे धार्मिक कार्यों पर खर्च होता है, तो दाभोलकर के जीवनकाल में उनकी मुहिम में किसी तरह मदद कर पाने की फुर्सत ही कहां मिलती है? मदद तो अलग, इसी तरह की मुहिमों से पैदा हुए अंधविश्वासों और उनकी अडिगता ने दाभोलकर का काम और जटिल कर दिया था। क्या इन संस्थाओं ने अंधविश्वास और हिंदू धर्म में पैदा हुई कुरीतियों के खिलाफ कुछ काम करके दाभोलकर जैसे शख्स की कोई मदद की है? 
मिसाल के तौर पर, क्या इन्होंने ब्रज या वाराणसी में झोंक दी गई विधवाओं के लिए कुछ किया है? या फिर दहेज प्रथा के चलते बहुओं को जला देने के खिलाफ? या कुंभ मेले में अपने पूजनीय, पर अनुपयोगी, मां-बाप को छोड़ आने के चलन के खिलाफ? या खाप पंचायतों की क्रूरताओं के खिलाफ? या उन लालची पंडों के खिलाफ, जो श्रद्धालुओं के आते ही मक्खियों की तरह भिनभिनाने लगते और उनकी नाक में दम कर देते हैं? या फिर अपनी गौ माता के लिए भी राजनीति के अलावा क्या किया है? उन्हीं के धर्म वाले गायों को सड़क पर धकेल देते हैं, जब उनकी उपयोगिता खत्म हो जाती है। उसके बाद अगर कूड़ा-कचरा, पॉलीथीन वगैरह खाकर या पेट्रोल के धुएं से उनका दम घुट जाता है या आती-जाती गाड़ियों से धक्के खाती और खुले घावों से मर जाती हैं। ये सब चीजें आस्थावानों के लिए तुच्छ नहीं हैं, मगर इन सुधारवादी संस्थाओं की राजनीति के लिए मासूम गायों की शहादत बहुत जरूरी है। 

क्या इन सुधारवादी संस्थाओं का सरोकार अपने जैसे ऊंचे और पवित्र लोगों से ही होता है? संघ के दूसरे प्रमुख गोलवलकर ने (म्लेच्छ) मुसलमानों के लिए कहा था 'दुनिया की कोई ताकत ऐसा नहीं कर सकती कि वे हिंदुस्तान में रह सकें। उन्हें देश छोड़ना ही होगा। अगर उन्हें यहां रखा जाता है तो उनकी जिम्मेदारी सरकार की है, हिंदू समाज की नहीं। महात्मा गांधी अब उन्हें गुमराह नहीं कर सकते। हमारे पास साधन हैं, जिनसे हम विरोधियों को एकदम खामोश कर सकते हैं।' दाभोलकर के हत्यारों ने क्या कुछ ऐसा ही सोच कर उन्हें खामोश कर दिया? 
दलितों के लिए भी उदारचित्त सवर्ण सुधारवादियों ने बहुत कुछ किया है। पहली बात तो यह कि उन्हें दलित बनाया। फिर यह फरमान जारी किया कि हिंदुस्तान के कोने-कोने में हजारों किस्म की अलग-अलग आस्थाएं रखने वाले दलित और अनुसूचित जाति वाले भी एक अखंड हिंदू धर्म के बंदे हैं। अब सवर्ण उन्हें अपने मंदिरों, अपने घरों से कोसों दूर रखें तो उनकी मर्जी- उन्होंने दलित और आदिवासियों को अपने धर्म में शामिल करने का उपकार किया है, बराबरी के इंसान बनाने का ठेका नहीं लिया है! गुजरात 2002 में एक सौ आठ दलितों की बलि देकर उन्हें शहीद भी बनाया गया। दरियादिली और उनकी राजनीतिक उपयोगिता की हद यह कि अगर सवर्णों के जुल्मो-सितम या छूतछात की वजह से वे किसी और धर्म के अनुयायी बन गए तो उन्हें फिर से हिंदू धर्म में परिवर्तित किया जा सकता है। ऐसे राज्यों में भी, जहां सवर्णों ने धर्म बदलने के खिलाफ कानून बनाया है। 
मेरा जन्म भी एक हिंदू परिवार में हुआ है। लिहाजा मैं काफी हद तक हिंदुओं के बीच ही उठा-बैठा हूं। लेकिन मैं उस हद तक अपनी धार्मिक विरासत को नहीं समझ पाया, जिस हद तक तरुण विजय समझ पाए हैं। अगर उनका कहा मानूं तो मुझे अपने घर का कूड़ा साफ करने की क्या जरूरत है, जब मैं किसी और के ऊपर- खासकर 'म्लेच्छों' के ऊपर- कीचड़ उछाल सकता हूं। क्यों न मैं अपना और सबका ध्यान ईद के मौके पर, एक महीने के निर्जल उपवास के बाद, की गई कुर्बानियों की तरफ ले जाऊं? वैसे भी मैं गोश्त का काफी शौकीन हूं और इंतजार करता हूं कि कोई इफ्तार और ईद के मौके पर मुझे बुलाए जरूर। एक फायदा और है। मैं टीवी कैमरों के सामने सुंदर-सुंदर बखान करके अपनी दरियादिली का बआवाजे-बुलंद एलान भी कर सकता हूं! 
अंधविश्वासों का जन्म आस्था के बाहुबलियों और व्यापार करने वालों के आंगन में ही होता है- और यह बात हर धर्म पर लागू होती है। दिवंगत दाभोलकरजी! जैसा गांधीजी के साथ हुआ या किया गया वैसा ही आपके साथ होगा। आपकी कसम खाएंगे और आप ही को रोजाना हम तिल-तिल कर मारते रहेंगे। हमारे विश्वासों को आपने वैज्ञानिक रूप से अंधविश्वासों की संज्ञा देने की गुस्ताखी जो की।

 

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