Monday, 16 September 2013 10:28 |
तरुण विजय इन्हें केदारनाथ का दुख नहीं। इन्हें नंदा की राजजात से जाति और सत्ता के समीकरणों में उलझे धर्मपुरुषों के खिलवाड़ की चिंता नहीं। बस इतना ही बोझ मन पर लिए परेशान हैं कि अगला चुनाव कैसे जीतेंगे, उसमें प्रचार के लिए पैसा कहां से जुटाएंगे, अपने भीतरी और बाहरी विरोधियों को धराशायी कैसे करेंगे। उत्तराखंड को बने तेरह साल हो गए। इन तेरह सालों में सरकारों ने नंदा को क्या दिया। पहाड़ में अस्पतालों की इमारतें तो बन गर्इं, पर न मशीनें आर्इं, न डॉक्टर। सड़कें स्वीकृत हुर्इं, पर बनीं कहां? लोहजंग से वाण की सोलह किलोमीटर लंबी सड़क पर दस साल से गिट््टी बिछती है, फिर बारिश आती है, फिर गिट््टी बिछती है फिर बर्फ आती है, पर सड़क नहीं बनती। केदार-बदरी में यात्रियों से होने वाली आय से पहाड़ की अर्थव्यवस्था चलती है। पर महान धर्मपुरुषों की समितियां उन पैसों से भक्तों की यात्रा निरापद बनाने के लिए अब तक क्या करती रहीं? हेलीपैड ठीक मंदिर के आंगन में बनवाया- इससे कोई धर्मक्षति नहीं हुई, क्योंकि धर्मपुरुषों को बराबर मुद्राविलास का सुख मिलता रहा। हवाई टिकट में शामिल था पिछले दरवाजे से लाइन तोड़ कर दर्शन कराने का विधान। बस इतना ही। हर महान धर्मपुरुष के वहां होटल, लॉज और रेस्तरां हैं। सारा मैला और कचरा मंदाकिनी, अलकनंदा और भागीरथी में जाता है। इससे कोई धर्मक्षति नहीं होती। धारी देवी- जिसका मंदिर हजार साल पुराना, द्वापर युग का कहते हैं, ठेकेदार रेड््डी साहब ने बस क्या से क्या कर दिया! मूर्ति को हिला-हिला कर उखाड़ा, के्रन से उठाया, नए ढांचे में, पुन: प्रतिष्ठित किया। पीछे सस्ती कलाकारी के हिसाब से प्लास्टिक का पहाड़ बना कर सजा दिया। और इस महान गढ़वाल के प्रतीक मंदिर का द्वार बना दिया आंध्र शैली का। वहां के प्रमुख पुजारी से मैंने आॅडियों रिकार्ड पर सारी जानकारी ली। क्या प्लास्टिक की पृष्ठभूमि से देवी का गर्भगृह अशुद्ध नहीं होता? वे बाल सुलभ निर्दोष भाव से बोले, मुझे तो पता नहीं। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने 'जय सोमनाथ' उपन्यास में लिखा है कि सोमनाथ ध्वंस के लिए जिम्मेदार वह ब्राह्मण पुजारी शिवराशि था, जो गजनी को गुप्त द्वार से भीतर लाया था और उसे अपनी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति का माध्यम बनाना चाहा था। यहां भी ये बड़े धर्मपुरुष कुछ भी करेंगे, पर धर्मभीरुओं को शाप-अभिशाप-धर्मदंड का भय दिखा कर चुप करा देंगे। इस बार नंदा यात्रा में पंचानबे प्रतिशत नौजवान थे। देश के कोने-कोने से महीनों पहले छुट््िटयां स्वीकृत करा कर आए पहाड़ी तेजस्वी और धारदार भुला (बेटे) और ध्याण (बेटियां)। हजारों लोग स्त्री पुरुष, बच्चे। पर न कोई सेटेलाइट फोन, न कोई वायरलेस सेट, न डॉक्टर, न शासकीय बंदोबस्त। किसी को कुछ हो जाए तो आकाश की ओर मुंह कर प्रार्थना करने के अलावा कुछ भी करना संभव नहीं। कृपा रही नंदा की, आपदा का रुख इधर नहीं हुआ। अनुपस्थित सरकार और प्रशासन, पर उपस्थित साक्षात नंदा। उत्तराखंड या कोई भी प्रदेश या क्षेत्र जन्मता है नंदा की प्रसव वेदना के बाद ही। हर घर में नंदा है। यहां भी जब नंदाएं सड़क पर निकलीं, हाथों में दरांती और अधरों पर विकास की गूंज लिए तो पहाड़ का प्रदेश बना। पर पहाड़ छला गया। सालों-साल यहां सिर्फ आपसी विद्वेष, नफरत, ईर्ष्या, अंतर्कलह और एक नेता द्वारा दूसरे नेता को खत्म किए जाने की ही खबरें छपती रहीं। दिल्ली सिर्फ जात देखती रही- पहाड़ कभी देखा नहीं, महसूस किया नहीं। बेदनी बुग्याल का अर्थ है- वेदना का मैदान। यहां सबकी वेदना का शमन होता है। पर बेदनी की नंदा अगर आहत हो तो उसकी वेदना कौन हरेगा।
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Monday, September 16, 2013
दक्षिणावर्त : बेदनी की वेदना
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