Monday, September 16, 2013

दक्षिणावर्त : बेदनी की वेदना

दक्षिणावर्त : बेदनी की वेदना

Monday, 16 September 2013 10:28

तरुण विजय 
जनसत्ता 15 सितंबर, 2013 : बेदनी नंदा का क्षेत्र है। नंदा यानी देवी यानी साक्षात भगवती महिषासुर मर्दिनी की यहां पूजा होती है। नंद की बेटी, जो चुपके से कंस के कारागृह में पहुंचा दी गई और कृष्ण को बचा कर, कंस के हाथ से छूट कर जिसने आतताई के अंत की घोषणा की और योगमाया भी कहलाई, वही उत्तराखंड में नंदा के नाम से पूजित हुई। नंद की बेटी नंदा, गढ़वाल और कुमाऊं के घर-घर में विराजमान हैं। हर गीत, हर अनुष्ठान, हर दुख-दर्द और वेदना में, हर संघर्ष और अभीप्सा में, हर स्वप्न और सुगंध में नंदा विराजित हैं। 
उसी नंदा की डोली को कैलास यानी नंदा के ससुराल ले जाने की यात्रा नंदा राजजात कही गई। राज यानी राजा द्वारा संरक्षित और जात यानी यात्रा। हर बारह साल बाद इसका आयोजन और अतीत में झांकें तो कहते हैं, चौदह सौ साल पुराना इसका इतिहास है। पर जब धर्मपुरुष सरकारी दरबार में आ जाएं तो कुछ ज्यादा ही निरंकुश हो उठते हैं। नंदा भी राज-ग्रहण का दुख झेलने पर विवश कर दी जाती है। उत्तराखंड बनने के बाद पहली राजजात के समय कहा गया- ग्रह अशुभ हैं। अगले साल यानी तेरहवें साल कहा- आपदा आ गई है। नंदा को पुजारियों ने मजाक बना दिया। 
पर इसे अस्वीकार कर लोग नंदा की डोली और छंतोलियां (छत्र) लेकर चले। नंदा की खड्ग होमकुंड तक, अठारह हजार फीट ऊंचाई पर हड््िडयां कंपाने वाले दिव्य क्षेत्र तक, ले जाकर पूजित हुई। लगभग एक सौ सैंतीस किलोमीटर चले लोग। कहीं सैकड़ों थे, तो कहीं हजारों। पहाड़ की मोटी काकड़ी (ककड़ी, खीरा), मूंगरी (मकई), लाल चुन्नी, चूड़ा, भुजोला (गर्म धान को कूट कर बनाया गया), फल, सिंदूर, चूड़ी, बिंदी, रिबन, नए साफ तौलिए से ढंकी थाली में अपनी बेटी नंदा को भीगे मन से भेंट देने परंपरागत पोशाक में सजी-धजी गढ़वाली महिलाएं आती गर्इं। बच्चे, किशोरियां, ब्वारी, (बहुएं), दूर-दराज के शहरों- बंगलुरु, दिल्ली, कोलकाता से आर्इं सुशिक्षित ध्याण (बेटियांं) गांव लौट आर्इं, ताकि नंदा की पूजा कर सकें। चांदी के पुराने विक्टोरिया और जॉर्ज पंचम के सिक्कों से बने भारी गुलबंद और चंद्रहार, अधरों तक लटकती देसर (गढ़वाली नथ), मंगलसूत्र, ललाट से नासिकाग्र तक लंबा सिंदूरिया कुमाऊंनी तिलक, कहीं लाल तो कहीं लोहजंग और वाण की परंपरा का काला पाखुला और लवा ओढ़े, हाथों में लाख, कहीं-कहीं हाथी दांत तो कहीं सोने के भारी कंगन। 
मानो चपल, चंचल, सुंदर, सुमधुर हास्य बिखेरती नंदा अपनी मां के आंगन में साक्षात उतर आई हो। गांव की सड़क टूटी, पगडंडियां और पुल अतीत की धूल में सने, गांव के आंगन- मानो वक्त ठहर कर वहीं बस गया हो, छोटे दरवाजों की सीढ़ियों से ऊपर चढ़ी बच्चियां चौबारों से यों झांक रही थीं मानो बादलों के झुरमुट से सितारे उत्सुकता से नंदा की झलक पाने को मचल रहे हों। काली स्लेट की छत से कभी-कभी मंद बारिश की बूंदें सरकती हुई नीचे हमारे चेहरे पर गिरतीं तो हम आस्तीन से पोंछ कर फिर नंदा की ओर हाथ जोड़े खड़े हो जाते। 
वाण से गैरोली पातल का रास्ता पलक झपकते बीता। प्लास्टिक की तिरपालिया छत का शिविर या वन विभाग की फाइबर से बनी कुटियां। कहीं-कहीं तो यह भी नहीं था और सैकड़ों लोग बस यों ही आग तापते, जागर और कौथीग में नंदा के गीत गाते हुए रात बिता गए। सुबह उजाला होते ही दौड़ते हुए से डोली उठाए लोगों का बेदनी तक आ पहुंचना इतना अविश्वसनीय अनुभव था कि अब भी लगता है क्या सचमुच इन आंखों ने ही नीले आकाश में शुभ्र बादलों की वनिका से झांकते नंदा शिखर को साक्षी मान नंदा की अद्भुत रंगों में सजी डोली का वह दृश्य देखा था! 
चाहिए क्या जीवन में और। विराट पर्वत, अनंत आकाश, निस्सीम धरती का आंगन, छोटा-सा मंदिर, प्यारी-सी नंदा, बड़ा-सा मन। 
सरकार, अफसर, नेता, लालबत्ती की लालसा- इन सबने पहाड़ छुड़वाया, पहाड़ का मन तुड़वाया। नंदा इनसे कैसे बचे?
यह सब यानी नंदा का सरकारी डोला उठाने वाले। नदी को बांधते, पहाड़ को काटते, सुरंग बनाते हैं। गंगा की धारा प्रति मेगावाट के हिसाब से बेचते हैं- कोठियां बनती हैं, गुड़गांव, नोएडा और दिल्ली में। सूना होता है तो सिर्फ पहाड़, पहाड़ का मन और बिखरता है पहाड़ का जन। 

नंदा इनसे कैसे बचे? 
इन्हें केदारनाथ का दुख नहीं। इन्हें नंदा की राजजात से जाति और सत्ता के समीकरणों में उलझे धर्मपुरुषों के खिलवाड़ की चिंता नहीं। बस इतना ही बोझ मन पर लिए परेशान हैं कि अगला चुनाव कैसे जीतेंगे, उसमें प्रचार के लिए पैसा कहां से जुटाएंगे, अपने भीतरी और बाहरी विरोधियों को धराशायी कैसे करेंगे। 
उत्तराखंड को बने तेरह साल हो गए। इन तेरह सालों में सरकारों ने नंदा को क्या दिया। पहाड़ में अस्पतालों की इमारतें तो बन गर्इं, पर न मशीनें आर्इं, न डॉक्टर। सड़कें स्वीकृत हुर्इं, पर बनीं कहां? लोहजंग से वाण की सोलह किलोमीटर लंबी सड़क पर दस साल से गिट््टी बिछती है, फिर बारिश आती है, फिर गिट््टी बिछती है फिर बर्फ आती है, पर सड़क नहीं बनती। 
केदार-बदरी में यात्रियों से होने वाली आय से पहाड़ की अर्थव्यवस्था चलती है। पर महान धर्मपुरुषों की समितियां उन पैसों से भक्तों की यात्रा निरापद बनाने के लिए अब तक क्या करती रहीं? हेलीपैड ठीक मंदिर के आंगन में बनवाया- इससे कोई धर्मक्षति नहीं हुई, क्योंकि धर्मपुरुषों को बराबर मुद्राविलास का सुख मिलता रहा। हवाई टिकट में शामिल था पिछले दरवाजे से लाइन तोड़ कर दर्शन कराने का विधान। बस इतना ही। हर महान धर्मपुरुष के वहां होटल, लॉज और रेस्तरां हैं। सारा मैला और कचरा मंदाकिनी, अलकनंदा और भागीरथी में जाता है। इससे कोई धर्मक्षति नहीं होती। धारी देवी- जिसका मंदिर हजार साल पुराना, द्वापर युग का कहते हैं, ठेकेदार रेड््डी साहब ने बस क्या से क्या कर दिया! मूर्ति को हिला-हिला कर उखाड़ा, के्रन से उठाया, नए ढांचे में, पुन: प्रतिष्ठित किया। पीछे सस्ती कलाकारी के हिसाब से प्लास्टिक का पहाड़ बना कर सजा दिया। और इस महान गढ़वाल के प्रतीक मंदिर का द्वार बना दिया आंध्र शैली का। वहां के प्रमुख पुजारी से मैंने आॅडियों रिकार्ड पर सारी जानकारी ली। क्या प्लास्टिक की पृष्ठभूमि से देवी का गर्भगृह अशुद्ध नहीं होता? वे बाल सुलभ निर्दोष भाव से बोले, मुझे तो पता नहीं। 
कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने 'जय सोमनाथ' उपन्यास में लिखा है कि सोमनाथ ध्वंस के लिए जिम्मेदार वह ब्राह्मण पुजारी शिवराशि था, जो गजनी को गुप्त द्वार से भीतर लाया था और उसे अपनी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति का माध्यम बनाना चाहा था। यहां भी ये बड़े धर्मपुरुष कुछ भी करेंगे, पर धर्मभीरुओं को शाप-अभिशाप-धर्मदंड का भय दिखा कर चुप करा देंगे। 
इस बार नंदा यात्रा में पंचानबे प्रतिशत नौजवान थे। देश के कोने-कोने से महीनों पहले छुट््िटयां स्वीकृत करा कर आए पहाड़ी तेजस्वी और धारदार भुला (बेटे) और ध्याण (बेटियां)। हजारों लोग स्त्री पुरुष, बच्चे। पर न कोई सेटेलाइट फोन, न कोई वायरलेस सेट, न डॉक्टर, न शासकीय बंदोबस्त। किसी को कुछ हो जाए तो आकाश की ओर मुंह कर प्रार्थना करने के अलावा कुछ भी करना संभव नहीं। कृपा रही नंदा की, आपदा का रुख इधर नहीं हुआ। अनुपस्थित सरकार और प्रशासन, पर उपस्थित साक्षात नंदा। 
उत्तराखंड या कोई भी प्रदेश या क्षेत्र जन्मता है नंदा की प्रसव वेदना के बाद ही। हर घर में नंदा है। यहां भी जब नंदाएं सड़क पर निकलीं, हाथों में दरांती और अधरों पर विकास की गूंज लिए तो पहाड़ का प्रदेश बना। 
पर पहाड़ छला गया। सालों-साल यहां सिर्फ आपसी विद्वेष, नफरत, ईर्ष्या, अंतर्कलह और एक नेता द्वारा दूसरे नेता को खत्म किए जाने की ही खबरें छपती रहीं। दिल्ली सिर्फ जात देखती रही- पहाड़ कभी देखा नहीं, महसूस किया नहीं। 
बेदनी बुग्याल का अर्थ है- वेदना का मैदान। यहां सबकी वेदना का शमन होता है। पर बेदनी की नंदा अगर आहत हो तो उसकी वेदना कौन हरेगा।

 

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