Friday, April 19, 2013

It is no different form Brahaminical Bengal!मीडिया में ब्राह्मणवाद का वर्चस्व!

It is no different form Brahaminical Bengal!

मीडिया में ब्राह्मणवाद का वर्चस्व!


मीडिया में ब्राह्मणवाद का वर्चस्व

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बिहार सरकार की नजर में कुल 683 पत्रकार हैं। मतलब यह कि राज्य में इतने पत्रकारों को बिहार सरकार ने सरकारी मान्यता प्रदान किया है। इनमें से 617 पत्रकारों की पृष्ठभूमि सवर्ण है। जबकि दलित पत्रकारों की कुल 9 और पिछड़े वर्ग के पत्रकारों की कुल संख्या 19 है। अति पिछड़ा वर्ग से संबंध रखने वाले पत्रकारों की कुल संख्या केवल 5 है। मीडिया में महिलाओं की भागीदारी का अनुमान केवल इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि इनकी उपस्थिति 2 फ़ीसदी से भी कम है। सबसे खास बात यह कि बिहार सरकार ने सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के पदाधिकारियों को भी पत्रकार के रुप में मान्यता प्रदान किया है।

सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के वेबसाइट पर प्रकाशित मान्यता प्राप्त पत्रकारों की सूची के अनुसार बिहार के सवर्ण पत्रकारों में सबसे अधिक संख्या ब्राह्म्णों की है। हालांकि उमकी और भुमिहारों की संख्या में भी बहुत अधिक का अंतर नहीं है। स्थानीय स्तर पर अपना बिहार द्वारा विभाग के लिस्ट के संबंध में विचार-विमर्श करने के बाद यह तथ्य सामने आया है कि पिछले 7 वर्षों में भुमिहारों का वर्चस्व बढा है। वहीं राजपूत पत्रकारों की संख्या में कमी आयी है।

कायस्थ जाति से संबंध रखने वाले पत्रकारों की संख्या सरकारी सूची के अनुसार उनकी आबादी में हिस्सेदारी का 20 गुणा है। जबकि मुसलमान पत्रकारों की संख्या उनकी आबादी में हिस्सेदारी से आधा कम है। गौरतलब है कि इनमें अशफ़ाक मुसलमानों की संख्या 97 फ़ीसदी के पास है। पसमांदा वर्ग के मुसलमान अभी भी मीडिया बिरादरी से लगभग दूर ही हैं।

मीडिया में दलितों की हिस्सेदारी की बात करें तो इनके नाम उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। हिन्दुस्तान में 3, प्रभातखबर में 2, दैनिक जागरण में 4, सहारा में 2 और इलेक्ट्रानिक मीडिया में दलित रिपोर्टरों की कुल संख्या (कैमरामैन नहीं) केवल 5 है। पिछड़ों की स्थिति और भी भयावह है। बहुसंख्यक आबादी की मीडिया में हिस्सेदारी अपने आप में बड़ा सवाल है।

बहरहाल, मूल बात यह है कि बिहार के बौद्धिक जगत में अब भी सवर्णों का कब्जा है। यह तथ्य चौंकाने वाला नहीं है। यह कब्जा इसलिए भी है कि बिहार में शिक्षा व्यवस्था भी सवर्णों के लिए ही है। दलित और पिछड़े वर्ग के लोग सवर्णों की तुलना में अमीर नहीं हैं। इसलिए दलित और पिछड़े वर्ग के अधिकांश बच्चे सवर्ण बच्चों की तरह बेहतर शिक्षा हासिल नहीं कर पाते। इसका असर समाज के हर क्षेत्र में दिखता है।

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