Thursday, 29 March 2012 10:39 |
गिरिराज किशोर मुगल काल के पतन के समय जानसठ के सैयद बंधु दिल्ली के तख्त पर बादशाहों को उतारते-बैठाते थे। सिर्फ इसी बात के चलते वे इतिहास में आ गए। क्या हमारा लोकतंत्र भी उसी तरफ जा रहा है? जनतंत्र में संसद जनप्रतिनिधियों की सबसे बड़ी पंचायत होती है, नेता सदन (यानी प्रधानमंत्री) सारे राजनीतिक दिशा-निर्देश देता है। उसकी सहायता मंत्रिमंडल करता है। प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं। लेकिन संभवत: हमारे देश में संसदीय लोकतंत्र का नया इतिहास लिखा जा रहा है। प्रधानमंत्री संसद की जगह सत्तारूढ़ गठबंधन की हिस्सेदार पार्टियों के प्रति उत्तरदायी होने के लिए मजबूर हैं। गठबंधन सरकारें प्रधानमंत्री की स्थिति को कमजोर कर रही हैं। साझा सरकार में अपेक्षया अधिक सदस्यों वाली पार्टियां सैयद बंधु की तर्ज पर प्रधानमंत्री की रास अपने हाथ में रखती हैं और ममता की तरह हर मौके पर यह बताती रहती हैं कि तुम हमारे रहमो-करम पर ही इस कुर्सी पर हो, हम जब चाहे तुम्हारी कुर्सी के नीचे से अपने समर्थन का कालीन खींच सकते हैं। द्रमुक और तृणमूल इसके उदाहरण हैं। इस बार दोनों पार्टियों ने खेल खेला है। द्रमुक ने तो एक पड़ोसी देश के साथ संबंध खराब होने की कीमत पर अपनी बात मनवाई। अब उस पड़ोसी देश ने साफ कह दिया कि कश्मीर के मसले पर दिखा देंगे कि हम क्या करते हैं। गठबंधन सरकार में सबसे बड़ी पार्टी का नेता प्रधानमंत्री होता है; अगर वे सत्ता खोने के भय से इतना झुक जाते हैं कि सीधे खड़े होने की आदत छूटती जाती है तो मुश्किल होगी। प्रधानमंत्री को अंदरूनी मामलों को ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय संबंधों को भी देखना होता है। 1937 में भी यह हो चुका है जब मुसलिम लीग और कांग्रेस की संयुक्त सरकार थी। तत्कालीन वित्तमंत्री लियाकत अली खां अपनी पार्टी के सदस्यों की समांतर सरकार चलाते थे। प्रधानमंत्री के लिए यह सबसे ज्यादा असुविधाजनक स्थिति थी। शायद यह सब ब्रिटिश हुकूमत के इशारे पर हो रहा था। लेकिन आज तो ऐसी कोई बंदिश नहीं। शायद स्वार्थ और सत्ता-लोलुपता इतनी बढ़ गई है कि छोटे दलों के नेता बिना इस बात का ध्यान किए कि उनसे बड़ा जन-समर्थन दूसरी पार्टी के साथ है, अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए वे उस जन-समर्थन को भी नकारने में गुरेज नहीं करते हैं। उन्हें सदन के नेता का और अपनी पार्टी से भेजे गए मंत्रियों का, स्वतंत्र निर्णय लेकर देश के हित में काम करना पसंद नहीं आता। यह दूसरी घटना है जब संविधान और देश को पार्टी से ऊपर मान कर पार्टी-प्रमुख को यह समझाने का प्रयत्न किया गया तो रेलमंत्री बाहर हो गए। इससे पहले माकपा ने अपने एक नेता सोमनाथ चटर्जी पर जोर डाला था कि पार्टी के यूपीए से हट जाने के कारण उन्हें भी लोकसभा अध्यक्ष का पद छोड़ देना चाहिए, लोकसभा अध्यक्ष को समझा जाता है कि वह निर्दलीय है। उनके मना कर देने पर उन्हें पार्टी-बदर कर दिया गया था। पिछले चुनाव में माकपा के हारने का एक कारण यह भी था। अपने एक साक्षात्कार में दिनेश त्रिवेदी ने स्पष्ट किया है कि उन्होंने वही किया जो किसी भी रेलमंत्री को करना चाहिए था। उन्होंने यह भी कहा कि कोई एक आदमी पार्टी नहीं तोड़ सकता, पार्टी को जनता ही तोड़ती है, जनता ही बनाती है। हमारे ज्यादातर राजनीतिकों ने देश के बारे में सोचना बंद कर दिया है। सत्ता में पहुंच कर अपने संसाधन और झूठी प्रतिष्ठा को मजबूत करना ही उनका उद्देश्य रहता है। लोकपाल के सवाल पर सब राजनीतिक पार्टियां इसीलिए दोहरी बातें करती रहीं क्योंकि उन्हें अपने-अपने दामन पर लगे दाग नजर आने लगे। एक सदन में विधेयक पास किया, दूसरे में किसी न किसी बहाने से रोक दिया। जब पार्टियों के अंदर जनतंत्र नहीं होगा तो देश में कैसे होगा! अगर ममता जी देश के प्रति जिम्मेदार अपने सहयोगी को प्रधानमंत्री पर दबाव डाल कर हटा सकती हैं तो देश भी उन्हें हटा सकता है। जनता ऐसा पहले कई बार कर चुकी है, राज्यों के स्तर पर भी और केंद्र के स्तर पर भी। सरकारें जब नेताओं के व्यक्तिगत हितों और रुचियों का पोषण करने में लग जाती हैं तो उनकी साख घटने लगती है। अब जनता को लगने लगा है कि उसके और सरकार के बीच न्यूनतम संबंध रह गया है। इसका नतीजा किसी के लिए भी ठीक नहीं होगा। |
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राजकाज और समाज
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