लाल झंडा और नीले रिबन का संकट
पलाश विश्वास
"जय भीम, कॉमरेड",इस फिल्म की शुरूआत 11 जुलाई, 1997 के उस दिन से होती है, जब अम्बेडकर की प्रतिमा को अपवित्र किए जाने की घटना के विरोध में 10 दलित इकट्ठे होते हैं और मुम्बई पुलिस उन्हें मार गिराती है। इस हत्याकांड के छह दिन बाद अपने समुदाय के लोगों के दर्द व दुख से आहत दलित गायक, कवि व कार्यकर्ता विलास घोगरे आत्महत्या कर लेते हैं।आत्महत्या करते समय विलास ने अपने सिर पर लाल झंडा नहीं बल्कि नीला रिबन लपेट लिया। लगता है कि विभ्रम की इस भयावह हालत में विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता की परिणति यही है।पिता के कैंसर से २००१ में अवसान के बाद से मैं इस संकट से जूझ रहा हूं। चूंकि बंगाली शरणार्थियों का कोई माई बाप नहीं है और पुलिनबाबू रीढ़ की हड्डी में कैंसर होने के बावजूद रात बिरात आंधी पानी में उनकी पुकार पर देश में हर कोने और तो और सीमा पार करके बांग्लादेश में दौड़ पड़ते थे। इस पारिवारिक परंपरा का निर्वाह करना अब हमारी मजबूरी है। कहीं से भी फोन आ जाये, तो दौड़ पड़ो!चूंकि पिता महज कक्षा दो तक पढ़े़ थे , हमारी दूसरी तक न पहुंचते पहुंचते तमाम महकमों, राजनीतिक दलों , मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्रियों को दस्तखत या पत्र लिखने की जिम्मेवारी हमारी थी। हमें कविता कहानी से लिखने की शुरुआत करने का मौका ही नहीं मिला।शायद यहीं वजह सेहै कि पिता की मौत के बाद कविता कहानी की दुनिया से बाहर हो जाने को लेकर मेरे मन में कोई पीड़ा नहीं है। हम तो अपने लोगो की जरुरत के मुताबिक लेखक बना दिये गये।ङमारे लोग हमें बचपन से जानते हैं और उनकी मैं अपेक्षा कैसे कर सकता हूं। पर विडंबना है कि हमारी विचारधारा के लोगों को अछूत शरणार्थियों की समस्याओं को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं है। पिताजी भी शुरुआती दौर में कट्टर कम्युनिस्ट थे। बंगाल में कामरेड ज्योति बसु के साथ काम कर चुके थे। तराई में आकर वे किसान सभा के नेता बन गये और १९५८ में उन्होंने तेलंगाना के तर्ज पर ढिमरी ब्लाक आंदोलन का नेतृत्व किया। वे शायद अकादमिक न होने की वजह से बड़ा आसानी से कह पाते थे कि अगर हम अपने लोगों की हिफाजत नहीं कर पाते तो विचारधारा किस, काम की? डीएसबी में पढ़ने लिखने के बाद यह दलील मानना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। पिताजी की राजनीति हमें असह्य थी। हम शरणार्थियों या अछूतों की मुक्ति के लिए नहीं बल्कि सर्वहारा के अधिनायकत्व के सपने में निष्णात थे। इसलिए दस्तखत और पत्र लिखने के अलावा उनके शरणार्थी आंदोलन में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं थी। पिता की मौत के तुरंत बाद २००१ में ही उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने बंगाली शरणार्थियों को विदेशी घुसपैठिया करार दिया। हमारे लोग आंदोलन कर रहे थे।अब मेरे लिए उलके साथ खड़ा होने के सिवाय कोई चारा नहीं था। पर इस लड़ाई में विचारधारा ने हमारा साथ नहीं दिया।
तब से लेकर अब तक देश के कोने कोने गांव गांव भटक रहा हूं हमारे लोगों की नागरिकता के लिए। १९९४ में मेरी चाची ने कैंसर से दम तोड़ दिया और १९५ में पत्नी सविता के दिल का आपरेशन हुआ। उन दिनों अमेरिका से सावधान धारावाहिक चप रहा था। मेंने इस घनघोर संकट में भी एक किश्त तक मिस नहीं की। पर पिता के मौत के बाद मैं सृजन जगत से यकायक बाहर हो गया।अब हालात ही कुछ ऐसे हैं कि मेरी यह दौड़ तमाम बाधाओं से बाधित हो रही है। मेरे पिता ने ऐसी बाधाओं की परवाह कभी नहीं की। पर में उनकी तरह फकीर की जिंदगी तो जी नहीं सकता।
देश के वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी इन दिनों दोहरे संकट में हैं, बंगाल में घट रही कांग्रेस का संतुलन बनाये रखते हुए उन्हें अग्निकन्या ममता बनर्जी की मिजाजपुर्सी भी करनी होती है। लगभग सभी मंत्रिमंडलीय कमिटियों की अध्यक्षता करते हुए देश के सबसे बड़े नीति निर्धारक भी प्रणव दादा हैं। जनमत को डांवाडोल कांग्रेस के हक में बनाये रखते हुए उन्हें कारपोरेट इंडिया की इच्छा मुताबिक बड़ते हुए राजकोषीय घाटा और गिरती हुई विकासदर की प्रतिकूल परिस्थितियों में आर्थिक सुधार भी लागू करने होते हैं। बंगाल से केद्रीय मंत्रियों को देश में कहीं भी शरणार्थी उपनिवेश में जाने की जरुरत महसूस नहीं हुई आजादी के बाद बीते साढ़े छह दशक में। पर इसबार यूपी उत्तराखंड में यह अनहोनी हो गयी। मुकुल राय दिनेशपुर पहुंचे तो प्रणव मुखर्जी पीलीभीत। दिनेशपुर दौरा के बाद दिनेश त्रिवेदी की जगह रेल मंत्री बनाये गये राय उस वक्त केंद्र में राज्य मंत्री थे। इसीलिए शायद बंगालियों के दिवंगत नेता पुलिन बाबू की मूर्ति पर माल्यार्पण के बाद स्थानीय जनता के दबाव के बावजूद उन्होंने कोई वायदा नहीं किया। दीदी की इजाजत के बिना ऐसा असंभव भी रहा होगा।
पर प्रणव मुखर्जी हुए देश के वित्तमंत्री और दांव पर लगी थी युवराज की साख। उत्तराखंड के अलावा यूपी के सभी जिलों में कमोबेश शरणार्थी कालोनियां हैं। पीलीभीत में कुछ ज्यादा ही हैं। वहां प्रणव बाबू ने गोषणा की कि वे बांग्लादेशियों को भारत की नागरिकता दिलवायेंगे। पचास के दशक की शुरुआत में यूपी में बसाये गये बंगाली शरणार्थियों को एक झटके उन्होंने बांग्लादेशी बना दिया। पर नागरिकता के संकट से जूझ रहे शरणार्थियों को यह वरदान ही लगा होगा। उन्होंने उनतके इस बयान का विरोध नहीं किया। इलाका मेनका गांधी और उनके पुत्र वरुण गांधी का है। पर चुनावी वायदे को सीरियसली न लेते हुए उन्होंने बी कोई हाय तौबा नहीं मचाया।
क्या सचमुच प्रणव बाबू बांग्लादेशियों को नागरिकता दिला सकते हैं?
मुझे इस सिलसिले में पिता की मृत्युशय्या पर तब नैनीताल से कांग्रेस सांसद और उनके सबसे बड़े मित्र नारायण दत्त के किये वायदे की याद आती है। उनके साथ यशपाल आर्य , सत्येंद्र गुड़िया और अब दिवंगत दिनेशपुर टाउन एरिया के चेयरमैन चित्तरंजन राहा समेत कांग्रेस के तमाम छोटे बड़े नेता थे। पिताजी से तिवारी जी ने अपनी आखिरी इच्छ पूछी थी। इस पर पिता ने कहा था कि चूंकि उनकी मौत कैंसर से हो रही है, वे इस पीड़ा को समझ सकते हैं। दिनेशपुर प्राथमिक चिकित्सा केंद्र से इलाके के लोगों का सही इलाज नही हो पाता। इस अस्पताल को बड़ा बना दें। तिवारी जी ने तब वायदा किया था कि न केवल इस अस्पताल को बड़ा बनायेंगे, बल्कि वहां कैंसर तक का इलाज होगा। यह कोई चुनावी वायदा नहीं था। मरते हुए पुराने साथी और मित्र को किया गया वायदा था। इसके बाद तिवारी जी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने और आज भी उत्तराखंड की राजनीति में उनकी खूब चलती है। पर उन्हे वह वायदा याद नहीं रहा। दिनेशपुर में अस्पताल जैसा कुछ नहीं हो सका।मामूली सी मामूली तकलीफ के लिए लोगों को बाहर दौड़ना पड़ता है।
गौरतलब है कि नागरिकता संशोधन कानून पास करवाने में पहले विपक्ष के नेता बाहैसियत संसदीय सुनवायी समिति के अध्यक्ष बतौर और फिर सत्ताबदल के बाद मुख्. नीति निर्धाक की हैसियत से उनकी भूमिका कास रही है। १९५६० तक पासपोरट वीसा का चलन नहीं था। भारत और पाकिस्तान की दोहरी नागरिकता थी। पर नये नागरिकता कानून के तहत १८जुलाई १९४८ से पहले वैध दस्तावेज के बिना भारत आये लोगों ने अगर नागरिकता नहीं ली है, तो वे अवैध घुसपैछिया माने जायेंगे। इसी कानून के तहत उडीसा के केंद्रपाड़ा जिले के रामनगर इलाके के २१ लोगों को देश से बाहर निकाला गया। जबकि वे नोआखाली दंगे के पीड़ित थे और उन्होंने १९४७-४८ में सीमा पार कर लीथी। राजनीतिक दल इस कानून की असलियत छुपाते हुए १९७१ के कट आफ ईअर की बात करते हैं। कानून मुताबिक ऐसा कोई कट आफ ईयर नहीं है। हुआ यह था कि १९७१ में बांग्लादेश की मुक्ति के बाद यह मान लिया गया कि शरणार्थी समस्या खत्म हो गयी। इंदिरा मुजीब समझौते के बाद इसी साल से पूर्वी बंगाल से ने आने वाले शरणार्थियों का पंजीकरण बंद हो गया। फिर अस्सी के दशक में असम आंदोलन पर हुए समझौते के लिए असम में विदेशी नागरिकों की पहचान के लिए १९७१ को आधार वर्ष माना गया। जो नये नागरिकता कानून के मुताबिक गैरप्रासंगिक हो गये हैं।
क्या प्रणव बाबू को अपने ही बनाये कानून के बारे में मालूम नहीं है? उन्होंने शरणार्थियों की सुनवाई करने से मना कर दिया था। देशभर से इस सिलसिले में आवेदन किये गये थे। एक आवेदन हमारा भी था। तब उनसे मिलने गये एक शरणार्थी प्रतिनिधिमंडल को डपटकर उन्होंने कहा था कि अगर वे देश के गृह मंत्री होते तो बहुत पहले इन शरणार्थियों को खदेड़कर बाहर कर देते।
जब तक यह कानून नहीं बदलता, तबतक बिना कागजात वाले समूहों और समुदायों मसलन शरणार्थी, देहात बेरोजगार सहरों में भागे आदिवासी, अपंजीकृत आदिवासी गांवों के लोगों, खानाबदोश समूहों और महानगरों की गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों को खभी भी देश से निकाला जा सकता है।
देशभर में शरणार्थियों के खिलाफ देश से निकालो अभियान के सबसे बड़े सिपाहसलार के इस वायदे पर क्या हंसें और क्या रोयें!
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