| Monday, 15 April 2013 09:13 |
कुमार प्रशांत मोदी ने इस बारे में गुजरात का अपना अनुभव भी बताया। लेकिन कहीं भी उन्होंने यह नहीं कहा कि सरकार और प्रशासन में जिस फर्क और दूरी की बात वे करते हैं, क्या गुजरात में ऐसा कुछ साकार हुआ है? सारे अधिकार और सारे निर्णय जब एक ही व्यक्ति और एक ही कुर्सी से जुड़े होते हैं, जैसा कि मोदी के गुजरात में है, तब शब्दों का ऐसा खिलवाड़ अच्छा लगता है। हकीकत यह है कि ब्रितानी ढंग के जिस प्रशासनिक ढांचे को हमने अपने यहां चलाए रखा है उसकी ताकत इसी में है कि शासन-प्रशासन की ऐसी जुगलबंदी बनी रहे कि एक-दूसरे के स्वार्थ पर कभी आंच न आए। इसलिए हम देखते हैं कि 2002 के गुजरात दंगों की जांच में सबसे बड़ी बाधा अगर कहीं से आ रही है तो वह मोदी की सरकार और मोदी के प्रशासन की तरफ से आ रही है। जिन अधिकारियों ने और जिन राजनीतिकों ने भी, दंगों के दौरान का अपना कोई सच दुिनया के सामने रखा या रखना चाहा, उनका क्या हुआ यह हम देख रहे हैं। परिणाम यह हुआ कि हमारी न्यायपालिका को यह विधान करना पड़ा कि अपराध भले गुजरात में हुआ है, उसकी जांच गुजरात के बाहर होगी, क्योंकि गुजरात में स्वाभाविक न्याय का कोई आधार नहीं बचा है। ऐसा पहले, कभी किसी राज्य के साथ नहीं हुआ। इस बारे में नरेंद्र मोदी और मोदीमय भाजपा कभी कुछ नहीं कहते हैं। जब ऐसी स्थिति गुजरात में है तो सरकार और प्रशासन का मोदी-फार्मूला विफल हुआ न! ममता बनर्जी के कोलकाता में पहुंच कर मोदी ज्यादा खुले यानी असली रंग में आए। उन्होंने यहां यह साबित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी कि वे प्रधानमंत्री बनने की जमीन तैयार करने के लिए घूम रहे हैं। एक कुर्सीप्रधान व्यावहारिक राजनीतिज्ञ की तरह वे हवा सूंघ रहे हैं कि भविष्य में कब, किसके समर्थन की जरूरत आन पड़े। यह सब कोई नया मॉडल हो तो यह मोदी और भाजपा को ही मुबारक हो, लेकिन हम देख रहे हैं कि सत्ता पाने की राजनीति भले ममता को खूब आती हो, सत्ता का कोई वैकल्पिक समीकरण भी हो सकता है यह उन्होंने न सीखा है न समझा है। इसलिए वे इतनी जल्दी अपनी दिशा भी खो चुकी हैं और संतुलन भी; और इसलिए बार-बार कोलकाता में दिल्ली का हौवा खड़ा करने के अलावा उन्हें अब कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है। वे तेजी से बंगाल हारती जा रही हैं। भारतीय जनता पार्टी भी इसी तरह वह सारी जमीन कांग्रेस से हारती गई जो उसने अटल-राज में कमाई थी। इसलिए यह ठीक ही है कि ममता के साथ मोदी अपना साम्य देखते हैं। लेकिन भाजपा को इस बात की फिक्र होनी चाहिए कि अगर मोदी इस साम्य को ज्यादा दूर तक ले जाने की कोशिश करेंगे तो कहां होगी पार्टी? मोदी कहते हैं कि लोगों का इस व्यवस्था में भरोसा नहीं रहा है! अगर यह सच है तो मोदी भी इसमें शामिल हैं न! ऐसा कह कर वे मनमोहन सिंह पर तीर चलाते हैं लेकिन वे खुद भी अपने ही तीर के निशाने पर आ जाते हैं, यह देख नहीं पाते हैं। क्योंकि व्यवस्था तो एक ही है जिसे गुजरात में वे और दिल्ली में मनमोहन सिंह चला रहे हैं। सरकार अलग बात है और व्यवस्था अलग, इसे भूल कर आप कैसे चल सकते हैं? मोदी बार-बार दोहराते हैं कि ढाई हजार करोड़ के घाटे की गुजरात की अर्थव्यवस्था आज 6,700 करोड़ रुपए के फायदे में चल रही है। इसे वे अपनी उपलब्धि बताते हैं। ऐसे कितने ही आंकड़े मनमोहन सरकार के पास भी थे, पर आज सब कहां बिला गए? दरअसल, बताना तो यह चाहिए न, कि घाटे से फायदे में आने वाली यह रकम आई कहां से? क्या राज्य की यानी लोगों की उत्पादन क्षमता बढ़ी और वे स्थायी रूप से संपत्तिवान हुए? गुजरात में बेरोजगारी की दर क्या थी और आज क्या है? मोदी हर साल अमदाबाद में बड़े-बड़े आर्थिक सम्मेलन करते हैं, कॉरपोरेट जगत को जमा करते हैं। ऐसे आयोजनों में निवेश के जो आंकड़े घोषित होते हैं उनमें से कितने धरती पर उतरते हैं? जो धरती पर उतरते हैं वे समाज के सभी वर्गों तक पहुंचते हैं? ऐसे सवालों के जवाब मिलें तभी पता चलेगा कि गुजरात में व्यवस्था के स्तर पर कोई फर्क आ रहा है क्या? http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/42460-2013-04-15-03-43-59 |
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महत्त्वाकांक्षा की राजनीति
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