Thursday, March 1, 2012

शिक्षा में विचार का विस्थापन

शिक्षा में विचार का विस्थापन


Thursday, 01 March 2012 10:38

शंकर शरण 
जनसत्ता 1 मार्च, 2012: वह मौसम आरंभ हो गया है, जब अनगिनत नए विश्वविद्यालयों, उच्च शिक्षण संस्थानों के विज्ञापन अखबारों में आते हैं। उनमें असंख्य प्रकार के पाठ्यक्रमों की सूचना है जिनमें छात्र दाखिला ले सकते हैं। दर्जनों की संख्या में डिप्लोमा, डिग्रियां विज्ञापित हो रही हैं। लेकिन उस लंबी सूची में 'बीए,' 'एमए' लगभग नदारद हैं। यानी कहीं साहित्य, दर्शन, इतिहास, राजनीति, मनोविज्ञान आदि पढ़ाने की व्यवस्था नहीं है। सबमें केवल विविध इंजीनियरिंग, उद्योग, व्यापार, प्रबंधन आदि से जुडेÞ विषय मात्र हैं। ये सब के सब निजी विश्वविद्यालय ही नहीं, उनमें कई राज्य सरकारों द्वारा खोले गए नए विश्वविद्यालय भी हैं। 
इस प्रकार, जिसे समाज अध्ययन (विज्ञान) और मानविकी कहा जाता है, वह नई पीढ़ी के लिए निरर्थक मान लिया गया है। हालांकि पुराने सरकारी विश्वविद्यालयों में ये विषय पाठ्यक्रम में हैं। लेकिन वहां भी इनमें नामांकन बहुत घट गया है। प्राय: पिछडेÞ किस्म के छात्र ही उनमें प्रवेश लेते हैं। पुराने सरकारी विश्वविद्यालयों में जो नामांकन हो भी रहे हैं, उनमें बहुतेरे विद्यार्थियों के लिए कारण दूसरा है। मुख्यत: वह छात्रावास-सुविधा लेकर नौकरी की खातिर होने वाली परीक्षाओं की तैयारी करना भर होता है। वास्तव में दर्शन, साहित्य और सामाजिक अध्ययन के विषय हमारी शिक्षा से लुप्त हो रहे हैं। 
इसका एक कारण स्वयं इन विषयों के कर्ता-धर्ताओं, बडेÞ प्रोफेसरों की दुर्बलता है। कई कारणों से वे अपने विषय की गंभीरता और रोचकता बनाए रखने में विफल रहे। नौकरी में स्थायित्व (चाहे वे निकम्मे ही क्यों न हो जाएं) और नियुक्तियों में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद ने समाज विज्ञान और मानविकी के प्रोफेसर वर्ग की गुणवत्ता को चौपट करके रख दिया। फलस्वरूप आज अधिकतर प्रोफेसर अपने विषयों में स्कूली शिक्षकों से बेहतर नहीं रह गए हैं। रही-सही कसर इन विषयों पर राजनीतिक विचारधारा के ग्रह ने पूरी कर दी। 
रेडिकल विचारधाराओं ने इन विषयों को अपने राजनीतिक प्रचार का औजार बना लिया। इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र और साहित्य के कई बडेÞ-बडेÞ प्रोफेसर मात्र वामपंथी लफ्फाजों में बदल कर रह गए। इन सब ने समाज अध्ययन विषयों की गरिमा को धूमिल कर डाला। आज कहने को देश में हजारों की संख्या में समाज विज्ञान और साहित्य के प्रोफेसर हैं। पर इनमें सच्चे विद्वान दीपक लेकर खोजने पर मिलेंगे। ऐसे नाकारा प्रोफेसर युवाओं को कैसे आकर्षित कर सकते हैं? समाज अध्ययन विषयों के पराभव का एक अन्य कारण भी है। वह है शिक्षा के प्रति समझ में आई विकृति। 'शिक्षा को रोजगार से जोड़ो' के नारे ने समय के साथ शिक्षा को मात्र रोजगार ट्रेनिंग में बदल दिया। इसीलिए नए विश्वविद्यालयों ने विश्वविद्यालय शब्द का अर्थ ही खो दिया है। 
चारों तरफ विश्वविद्यालय या संस्थान के नाम पर केवल उसी तरह के केंद्र हैं, जहां सिर्फ रोजगार और व्यवसाय के प्रशिक्षण का कार्य चल रहा है। भले वह उपयोगी है, पर शिक्षा का सारा अर्थ और लक्ष्य उसी में सिमट जाना एक ऐतिहासिक दुर्घटना है। क्योंकि वस्तुत: शिक्षा का मूल कथ्य वह रहा है जिसे अब सामाजिक और मानविकी कहा जाता है। विश्वविद्यालय हमेशा बडेÞ ज्ञानियों, बौद्धिकों का केंद्र मात्र होता था। वहां डॉक्टरी, इंजीनियरिंग आदि विषय तो पहले होते भी नहीं थे। इन विषयों का शिक्षण-प्रशिक्षण अन्य स्थानों पर होता था। विश्वविद्यालय का अर्थ था, सर्वोच्च चिंतन केंद्र। वहां समाज के चिंतक, मार्गदर्शक, नीतिकार निखरते थे। यूरोप में भी 'शिक्षित' का अर्थ माना जाता था, जिसने भाषा, साहित्य, विशेषकर शास्त्रीय साहित्य का अध्ययन किया हो। 
केवल लिखने-पढ़ने, हिसाब-किताब करने की योग्यता रखने वाले बडेÞ व्यवसायियों, मैनेजरों या इंजीनियरों, चिकित्सकों आदि को 'शिक्षित' वाला विशेषण कहीं नहीं दिया जाता था। यह भाव वहां अब भी है। शेक्सपियर, दांते, सोल्झेनित्सिन आदि को पढ़ा हुआ व्यक्ति ही उत्तम अर्थ में शिक्षित (वेल-एजुकेटेड) माना जाता है। कोई और नहीं।
इसलिए शिक्षा सदैव विवेक और चिंतन को संस्कारित करने वाली चीज रही है। रोजगार का प्रशिक्षण दूसरी चीज थी, जिसका हर समाज में अलग स्थान था। न केवल भारत, चीन और प्राचीन रोम, बल्कि आॅक्सफर्ड, कैंब्रिज और हार्वर्ड जैसे अपेक्षया नए विश्वविद्यालयों में भी सर्वोच्च ज्ञान, यानी तत्त्व-चिंतन और साहित्य का ही अध्ययन किया जाता था। तक्षशिला, नालंदा, उदंतपुरी, द्रेपुंग से लेकर प्लेटो की अकेडमी और बलोना, काहिरा, बगदाद तक के महान शिक्षा केंद्रों में यही होता था। 
आधुनिक यूरोप के विश्वविद्यालयों में भी तकनीकी विषय शिक्षा के पाठ्यक्रम में बहुत बाद में शामिल हुए। इन्हीं विश्वविद्यालयों की नकल पर आधुनिक युग में हमारे देश में भी विश्वविद्यालय बने। पर उन देशों में आज भी समाज अध्ययन यथावत प्रतिष्ठित हैं। यहां तक कि अमेरिका के विश्व-प्रसिद्ध मेसाचुसेट्स इंस्टीच्यूट आॅफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) में भी दर्शन, साहित्य और भाषा के उत्कृष्ट विभाग हैं, जहां अनेक विद्वान स्थापित हैं। लेकिन हमारे देश में तमाम जमे-जमाए विश्वविद्यालयों में भी इन विभागों की अंतिम सांसें चल रही हैं। यह एक गंभीर चिंता की बात है। 
क्योंकि किसी भी देश का अस्तित्व बने रहने के लिए वहां के लोगों में तीन मानसिक क्षमताएं होना सदैव आवश्यक है। ये हैं- विवेकपूर्ण विचार करने की क्षमता; तुलना और विभेद करने की क्षमता; और अभिव्यक्ति की क्षमता। श्रीअरविंद ने कहा था: 'किसी भी महान देश का बौद्धिक पतन हमेशा   इन्हीं तीन गुणों के क्षरण से आरंभ होता है।' 

इससे समझा जा सकता है कि युवा पीढ़ी में इन क्षमताओं के सतत विकास की कितनी आवश्यकता है। इनका क्षरण तभी होता है जब लोगों का ध्यान मुख्यत: केवल सूचनाएं याद करने और तकनीकी, व्यावसायिक हुनर प्राप्त करने पर चला जाता है। सामाजिक और मानविकी की उपेक्षा करने वालों को श्रीअरविंद की यह चेतावनी याद रखनी चाहिए। 
मनुष्य और समाज के बारे में ज्ञान को ही सामान्यत: मानविकी और समाज विज्ञान कहा जाता है। आधुनिक लोकतंत्र में इसका अध्ययन सबके लिए आवश्यक है। यह उन बौद्धिक गुणों के विकास में सहायक है, जिन पर लोकतंत्र निर्भर है। ये गुण हैं- सार्वजनिक महत्त्व के मामलों में रुचि लेना,  उन पर युक्तिपूर्वक सोचने की आदत डालना, विश्व का जरूरी ज्ञान देना, और अपने विषय-क्षेत्र से बाहर के विषयों में अपने पूर्वग्रहों को जानना और उन्हें नियंत्रित करना। अगर इन बातों से कोई निर्विकार हो, तो अच्छा नागरिक नहीं बन सकता। 
लॉर्ड ब्राइस ने कहा था: 'विज्ञान और तकनीक में कुशलता से कोई मनुष्य राजनीति में भी बुद्धिमान नहीं हो जाता। इस मामले में कई बडेÞ वैज्ञानिक भी स्कूली छात्रों से अधिक बुद्धिमान नहीं रहे हैं।' अत: केवल प्रायोगिक विज्ञान और तकनीक की पढ़ाई वाले वातावरण में अधिकतर युवाओं में उपर्युक्त चारों गुण सूख जाते हैं। तब अच्छे इंजीनियर, डॉक्टर भी सामाजिक मामलों में घातक नारों का समर्थन करने वाले बन जा सकते हैं।
इसलिए मानविकी और सामाजिकी, यानी वास्तविक ज्ञान की उपेक्षा खतरनाक है। भारत के लिए तो श्रीअरविंद की चेतावनी विशेषकर स्मरणीय है, क्योंकि पिछले हजार वर्ष से बाहरी दस्यु, बर्बर और धूर्त आकर यहां बेहतर सभ्यता-संस्कृति वाले लोगों पर अधिकार जमाते रहे हैं। यही कार्ल मार्क्स ने भी लिखा है। ऐसी समस्याओं की विवेचना और जरूरी उपायों का अध्ययन किस प्रयोगशाला में किया जाएगा? अगर न किया गया, जैसा ये नए-नए तकनीकी 'विश्वविद्यालय' दिखा रहे हैं, तो पुन: भारत का पराभव नहीं होगा, इसकी गारंटी कौन करेगा?
याद रहे, सोने की चिड़िया ही लूटी गई थी! यानी, उद्योग, तकनीक, धन-वैभव से परिपूर्ण भारत ही पराधीन हुआ था। किनके हाथों, कैसे, किन स्थितियों में? यही वे प्रश्न हैं, जिन्हें केवल उत्कृष्ट चिंतन, दर्शन और साहित्य ही समझता और हल करता है। इसी ज्ञान पर कोई भी सभ्यता टिकती, सुरक्षित रहती है।
इस पृष्ठभूमि में उस घातक प्रवृत्ति को समझें, जो केवल धन कमाने के प्रशिक्षण को 'शिक्षा' का पर्याय बना रही है। इससे भारत के युवा केवल तकनीकी, मशीनी और कार्यालय चलाने वाले मजदूर, प्रबंधक आदि भर बन सकेंगे। चाहे उन्हें कितनी ही अच्छी आय होती हो, वे देश और समाज के बारे में, यहां तक कि अपने बारे में भी सोचने-विचारने में असमर्थ होंगे। अपने अस्तित्व, जीवन और भूमिका के बारे में वे कुछ ढंग का सोच-विचार नहीं कर सकेंगे। जिन्हें शास्त्रों में ठीक संज्ञा दी गई है- 'मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति'। 
वैसे भी, अगर मशीन, दफ्तर, कारोबार चलाने के लिए व्यवस्थित प्रशिक्षण जरूरी है, तो मानव जीवन और समाज चलाने के लिए कई गुना जटिल शिक्षण की आवश्यकता होती है, जिसमें दर्शन, इतिहास, राजनीति, मनोविज्ञान का ज्ञान अपरिहार्य है। तभी सुयोग्य लोगों में चिंतन-मनन की वह क्षमता विकसित होती है, जिसके बिना स्व-रक्षा तक के लिए नीति-निर्माण असंभव है। इसलिए श्रेष्ठ साहित्य और इतिहास सबके लिए थोड़ा-बहुत पढ़ना आवश्यक है, अलग सामाजिक और मानविकी धारा के रूप में ही नहीं।
महान पुस्तकों के नित्य पाठ से मनुष्य की चेतना, बुद्धि और संस्कार परिष्कृत होते हैं। किसी न किसी उत्कृष्ट साहित्य का दो-चार पृष्ठ भी नित्य पढ़ने की आदत एक ऐसी अनमोल निधि देती है जो अनगिनत रूपों में व्यक्ति के लिए लाभप्रद है। यह ऐसा सत्संग है जिससे सदैव लाभ मिलता है। उससे व्यक्ति में कल्पनाशक्ति, अभिव्यक्ति के लिए सही शब्दों की समझ और भाषा-ज्ञान बढ़ाने के प्रति रुचि सहज बढ़ती जाती है। ये सब व्यक्तित्व के विकास के लिए अनमोल वस्तुएं हैं। मानव जीवन और समाज संबंधी किसी समस्या, परिघटना की व्यवस्थित समझ के लिए ऐसा अध्ययन अत्यंत सहायक होता है। 
पर अभी भारत में शिक्षा के नाम पर जो चलन बढ़ा है, उससे हमारा देश पूरी दुनिया को 'मानव संसाधन' निर्यात करने वाला कारखाना बनता जा रहा है। चाहे उन्हें इंजीनियर, मैनेजर, आइटी प्रोफेशनल, आदि ही क्यों न कहा जाए; वे उच्च वेतन-भोगी श्रमिक मात्र हैं जो अमेरिका, यूरोप, अरब, आॅस्ट्रेलिया जा रहे हैं। केवल वैसे लोग अधिक मात्रा में बनाने के लिए ये सारे रोजगारोन्मुख 'विश्वविद्यालय' खोले जा रहे हैं। मात्र अधिकाधिक धन बनाने की लालसा ने शुद्ध ज्ञान के क्षेत्र को नितांत उपेक्षित कर दिया है। इससे व्यक्ति और समाज, दोनों को जो दूरगामी हानियां हैं, उन पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

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