Thursday, 18 April 2013 12:12 |
सुरेश पंडित माननीय मुख्यमंत्री के इस निर्णय के पीछे किसी दुरभिसंधि को तलाशना उनकी उदारता पर सवाल उठाना हो सकता है। लेकिन इस आपत्ति की अनदेखी नहीं की जा सकती कि जब बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पैसे से कोई साहित्यिक आयोजन गलत हो सकता है तो सरकारी पैसे से उसका होना सही कैसे माना जा सकता है। संभव है इसका जवाब वही आए जिसे पवित्रतावादी लोग, अक्सर जब स्वयं सरकारी सहायता लेते हैं तो अपने इस कृत्य को उचित ठहराने के लिए, दोहराते रहते हैं कि सरकारी पैसा जनता का ही पैसा होता है जिसे वह करों के रूप में और अन्य संसाधनों के उपयोग के एवज में चुकाती है। पर यह तर्क तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बारे में भी दिया जा सकता है। आखिर पेप्सी या कोका कोला के पास भी तो वही पैसा होता है जो हम उनके उत्पाद खरीदने के लिए देते हैं। मालिक बदलते रहते हैं, पैसा तो वही रहता है। साहित्यकार का सबसे पहला और अहम दायित्व जनता का हित देखना होता है। लोकतंत्र हो या अन्य किसी भी तरह की शासन प्रणाली, सब में सरकारें पहले अपने हित साधती हैं, फिर लोगों पर ध्यान देती हैं। ऐसी सरकारें प्राय: देखने में नहीं आतीं जो अपने वजूद को खतरे में डाल कर जनता के हित के लिए तत्पर हों। इसीलिए सच्चा साहित्यकार कभी सत्ता से समझौता नहीं करता। सरकारी आयोजनों में भाग लेकर या सत्ता से लाभ उठा कर कोई भी साहित्यकार अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार नहीं रह सकता। वह यह नहीं कह सकता कि सरकार द्वारा सहायता प्राप्त कोई साहित्यिक आयोजन इसलिए अच्छा होता है क्योंकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों में लगने वाले पैसे से उसका पैसा शत-प्रतिशत पवित्र होता है। इस सारी बहस से गुजर लेने के बाद हम उस अहम मुद््दे पर आते हैं जिस पर असल में शुरू में ही विचार होना चाहिए था। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने तो अपने सुखचारित मगर गोपनीय एजेंडे के तहत साहित्य के मारक तेवरों को कुंद करने के लिए उसे बाजार का एक तमाशा बना दिया है, पर हम क्यों उस जैसा ही एक और तमाशा पेश करने के लिए उतावले हो रहे हैं? क्या इस तरह बाजार हमें हथियार बना कर साहित्य की आत्मा-उस विचार को परास्त नहीं कर रहा है जिसके सहारे हम उसकी अमानवीय मुनाफा कमाऊ प्रकृति से लड़ने के मनसूबे बना रहे थे। दरअसल हर तरह की सत्ता स्वतंत्र विचार की शक्ति से भयभीत रहती है। इसीलिए वह इसे नियंत्रित करने, कुचलने के सारे कुचक्र चलती रहती है। शिक्षा व्यवस्था को अपने काबू में लेना, पुस्तकालयों को नष्ट करना या निरर्थक बना देना और साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों को पद, पुरस्कार, सम्मान आदि द्वारा अपने पक्ष में करना या उनकी रचनाओं पर प्रतिबंध लगाना, उनके विरुद्ध दमनात्मक कार्रवाई करना और देश से निर्वासित करना जैसे कदम उसकी रणनीति के अचूक उपाय होते हैं। सुप्रसिद्ध लेखक और विचारक रामविलास शर्मा का मानना है कि साहित्य की बुनियादी प्रकृति किसी भी कीमत पर रूढ़ियों को बर्दाश्त नहीं करती। उनके अनुसार जाति या समाज गतिरुद्ध, रूढ़िबद्ध जड़ इकाई नहीं है। वह सतत परिवर्तनशील, विकासमान, अवरोध पैदा करने वाली और अवरोधों को हटाने वाली इकाई है। रूढ़ि से उनका तात्पर्य यथास्थिति से है। सत्ता को अपना वजूद बनाए रखने के लिए यथास्थिति बनाए रखना जरूरी होता है। इसीलिए परिवर्तन का संवाहक साहित्य हमेशा इसके विरोध में खड़ा रहता है। इस तरह साहित्य का यह उत्सवीकरण बाजार और उसके हितों को पालने-पोसने वाली सत्ता द्वारा उसकी प्रतिरोधी धार को कुंठित करने के षड्यंत्र से कम नहीं है। इससे असली मुद््दे यानी सामाजिक परिवर्तन से लेखक की दूरी बनती है और क्रांति साहित्य के एजेंडे से बहिष्कृत होती है। साहित्यिक गतिविधियां विशेषत: उत्सवधर्मी गतिविधियां साहित्य का कोई भला नहीं करतीं, बल्कि उसकी वैचारिक विषयवस्तु को उथला बना देती हैं। इनमें प्रस्तुतियों की सार्थकता पर उतना जोर नहीं दिया जाता जितना औपचारिकता को निभाने पर। मीडिया कवरेज से ये थोड़े समय के लिए चर्चा में जरूर आ जाती हैं और इस तरह आयोजकों और संभागियों को थोड़ा तात्कालिक लाभ हो जाता है लेकिन ठोस हासिल कुछ नहीं होता। इसीलिए रामविलास शर्मा जोर देकर कहते हैं कि साहित्य का महत्त्वपूर्ण योगदान सिर्फ लेखन और कर्म, कर्म और लेखन की नियमित अदलाबदली से ही संभव है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/42694-2013-04-18-06-43-41 |
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साहित्य समारोह और संसाधन
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