Thursday, April 18, 2013

साहित्य समारोह और संसाधन

साहित्य समारोह और संसाधन

Thursday, 18 April 2013 12:12

सुरेश पंडित 
जनसत्ता 18 अप्रैल, 2013: पानी रे पानी तेरा रंग कैसा- एक बहुत पुराने फिल्मी गीत की यह पहली पंक्ति है, जिसमें उठाया गया सवाल आज भी अनुत्तरित है। लाख कोशिश करने पर भी इसका रंग तय नहीं हो पाया है। आसमान की परछार्इं में यह नीला दिखाई देता है तो सूरज के उगते, छिपते वक्त इसकी रंगत सिंदूर मिले सोने जैसी होती है। जिस रंग का पदार्थ इसमें मिलता है उसी रंग से इसकी पहचान होने लगती है। स्त्रियों की जाति के बारे में भी हमारे समाज का रवैया कुछ ऐसा ही है। वे जब तक पुत्री बन कर अपने पितृ-गृह में रहती हैं उन्हें पिता की जाति का माना जाता है। लेकिन ज्यों ही वे किसी भिन्न जाति के पुरुष की अर्धांगिनी बनती हैं उनकी जाति पिता के बजाय पति की हो जाती है। अगर वे एकाधिक बार शादी करती हैं तो उनकी जाति हर बार बदल जाती है। (हालांकि अब कुछ पढ़ी-लिखी और अपनी पहचान के प्रति सचेत महिलाएं अपनी मूल या पिता-प्रदत्त जाति को ज्यों का त्यों बनाए रखने लगी हैं या अपने साथ पति की जाति को भी जोड़ने लगी हैं।)
इसी तरह पैसे का रंग भी अनिश्चित-सा रहा है। शास्त्र कहते हैं- सर्वे गुणा: कांचनमाश्रयंति, अर्थात सारे गुण पैसे पर आश्रित होते हैं। पैसा आते ही निपट गुणहीन व्यक्ति भी गुणियों में गिना जाने लगता है। इसीलिए अपावन ठौर पर पड़े कंचन को भी कोई नहीं छोड़ता। घोर पवित्रतावादी भी किसी किसी अस्पृश्य से पैसा लेने में तनिक संकोच नहीं करते।
गांधी साध्य और साधन, दोनों की पवित्रता पर जोर देते थे। मगर उनके नाम पर चलने वाली संस्थाओं और सरकारों ने उनकी इस बात को विशेष ध्यान देने योग्य नहीं माना और हर प्रकार के मादक और अखाद्य पदार्थों की बिक्री से मिलने वाले पैसों से स्कूल और अस्पताल खोलने में उन्हें कोई बुराई नजर नहीं आई। गांधी साफ-सुथरे यानी श्रम से, ईमानदारी से कमाए गए पैसे को ही पवित्र मानते थे। पवित्रता का रंग सफेद होता है। इसी से शायद 'वाइट मनी' और 'ब्लैक मनी' जैसे शब्द आर्थिक क्षेत्र में प्रचलित हुए। पर मार्क्स का मानना है कि पूंजीवादी समाज में पैसे का रंग हमेशा काला होता है। क्योंकि उस समाज की नींव ही अन्याय और शोषण पर टिकी होती है। 
आधुनिक अर्थशास्त्र गांधी और मार्क्स, दोनों को पीछे छोड़ आया है। अब पैसा अपने आप में कोई खास महत्त्व नहीं रखता। चोरी, डकैती, हत्या और अन्य प्रकार के दुष्कर्मों से कमाए गए पैसे को भी वह पाप का पैसा नहीं मानता। पर अब भी समाज में ऐसे बहुत-से लोग मिल जाएंगे, जो यह मानने का दिखावा करते हैं कि अच्छे काम में अच्छे पैसे का ही इस्तेमाल होना चाहिए। उन्हें यह बुरा लगता है कि अमुक गांधीवादी शराब के ठेकेदारों से पैसे ले रहा है, या फलां मार्क्सवादी काली कमाई करने वालों से सहायता प्राप्त कर रहा है।
वे अपनी, अपने परिचितों, संबंधियों की संततियों के देश-विदेश में फैली बहुराष्ट्रीय कंपनियों में मोटे पैकेज वाली नौकरी करने का तो बड़े गर्व से बखान करते हैं, लेकिन इनकी या विदेशी दानदाता एजेंसियों की वित्तीय सहायता से होने वाले वैचारिक आयोजनों की आलोचना करते 
हैं। राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संगठन कहां से पैसे लाते हैं और एक से बढ़ कर एक भव्य समारोह कर लेते हैं, इस बात का पता होते हुए भी इसमें उन्हें कोई बुराई नहीं दिखाई देती। लेकिन जब लेखक संगठन और अन्य साहित्यिक संस्थाएं कॉरपोरेट घरानों से या धनिकों से सहायता लेकर अपने आयोजन करते हैं तो इनकी आंख की किरकिरी बन जाते हैं।
पिछले कुछ सालों से जयपुर में हो रहे साहित्य समारोह पर भी इसलिए आपत्तियां उठाई जा रही हैं, क्योंकि वह कुछ जानी-मानी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा प्रायोजित हो रहा है। कुछ समय पहले साहित्य अकादमियों ने भी जब इनके पैसे से गण्यमान्य साहित्यकारों को सम्मानित-पुरस्कृत करने की मंशा जाहिर की थी, तब उसका भी विरोध किया गया था और उनकी वैचारिक स्वतंत्रता और राष्ट्रीय हितों के खतरे में पड़ने की आशंका जताई थी। 
जयपुर साहित्य उत्सव पर यह आरोप आमतौर पर लगाया जाता है कि इसमें हिंदी के लेखकों के साथ सौतेला व्यवहार होता है। अंग्रेजी में लिखने वाले या अंग्रेजी मानसिकता रखने वाले लेखक वहां अनायास 'डिग्नीटरी' बन जाते हैं। इसमें देश की राजनीतिक, सामाजिक समस्याओं और उनसे पैदा होने वाली सामान्यजन की बदहाली को दर्शाने और इसके लिए जिम्मेवार ताकतों को बेनकाब करने वाले साहित्य को कोई अहमियत नहीं दी जाती; बल्कि इनकी जगह गुलजार, जावेद अख्तर, शहरयार और इन जैसे अन्य लोगों को, जो सही मायने में लेखक कम, गलैमर की दुनिया के सितारे अधिक होते हैं, विशेष महत्त्व दिया जाता है।
बहुत-से लोग इन्हें देखने, इनकी हल्की-फुल्की उन रचनाओं को सुनने जाते हैं जो सस्ते रोमांस और विगलित भावुकता की अभिव्यक्ति होती हैं और व्यवस्था को यथावत बनाए रखने का काम करती हैं। इनमें जान-बूझ कर कुछ ऐसे मुद््दे उठाए जाते हैं, ऐसे व्यक्ति बुलाए जाते हैं या ऐस प्रसंग आयोजित किए जाते हैं जिनसे विवाद पैदा हो, उत्तेजना फैले और इस तरह यह आयोजन मीडिया में कुछ समय के लिए छाया रहे।

ऐसे में अगर कुछ साहित्यकर्मी यह चाहें कि इस फेस्टिवल के समांतर एक राजस्थान साहित्य उत्सव जैसा कोई आयोजन हो, जो इतना ही भव्य मगर इसमें दिखाई और महसूस कराई गई कमियों को दूर करने वाला हो, तो उनके इस इरादे से निश्चय ही किसी को असहमति नहीं हो सकती। लेकिन यह इरादा तब शंका पैदा कर देता है जब राजस्थान के मुख्यमंत्री तत्काल इस तरह के प्रस्ताव को सरकारी सहायता देने के लिए न केवल तैयार हो जाते हैं बल्कि बजट में इसके लिए प्रावधान भी कर देते हैं। 
माननीय मुख्यमंत्री के इस निर्णय के पीछे किसी दुरभिसंधि को तलाशना उनकी उदारता पर सवाल उठाना हो सकता है। लेकिन इस आपत्ति की अनदेखी नहीं की जा सकती कि जब बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पैसे से कोई साहित्यिक आयोजन गलत हो सकता है तो सरकारी पैसे से उसका होना सही कैसे माना जा सकता है। संभव है इसका जवाब वही आए जिसे पवित्रतावादी लोग, अक्सर जब स्वयं सरकारी सहायता लेते हैं तो अपने इस कृत्य को उचित ठहराने के लिए, दोहराते रहते हैं कि सरकारी पैसा जनता का ही पैसा होता है जिसे वह करों के रूप में और अन्य संसाधनों के उपयोग के एवज में चुकाती है। पर यह तर्क तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बारे में भी दिया जा सकता है। आखिर पेप्सी या कोका कोला के पास भी तो वही पैसा होता है जो हम उनके उत्पाद खरीदने के लिए देते हैं। मालिक बदलते रहते हैं, पैसा तो वही रहता है।
साहित्यकार का सबसे पहला और अहम दायित्व जनता का हित देखना होता है। लोकतंत्र हो या अन्य किसी भी तरह की शासन प्रणाली, सब में सरकारें पहले अपने हित साधती हैं, फिर लोगों पर ध्यान देती हैं। ऐसी सरकारें प्राय: देखने में नहीं आतीं जो अपने वजूद को खतरे में डाल कर जनता के हित के लिए तत्पर हों। इसीलिए सच्चा साहित्यकार कभी सत्ता से समझौता नहीं करता। सरकारी आयोजनों में भाग लेकर या सत्ता से लाभ उठा कर कोई भी साहित्यकार अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार नहीं रह सकता। वह यह नहीं कह सकता कि सरकार द्वारा सहायता प्राप्त कोई साहित्यिक आयोजन इसलिए अच्छा होता है क्योंकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों में लगने वाले पैसे से उसका पैसा शत-प्रतिशत पवित्र होता है।
इस सारी बहस से गुजर लेने के बाद हम उस अहम मुद््दे पर आते हैं जिस पर असल में शुरू में ही विचार होना चाहिए था। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने तो अपने सुखचारित मगर गोपनीय एजेंडे के तहत साहित्य के मारक तेवरों को कुंद करने के लिए उसे बाजार का एक तमाशा बना दिया है, पर हम क्यों उस जैसा ही एक और तमाशा पेश करने के लिए उतावले हो रहे हैं? क्या इस तरह बाजार हमें हथियार बना कर साहित्य की आत्मा-उस विचार को परास्त नहीं कर रहा है जिसके सहारे हम उसकी अमानवीय मुनाफा कमाऊ प्रकृति से लड़ने के मनसूबे बना रहे थे। दरअसल हर तरह की सत्ता स्वतंत्र विचार की शक्ति से भयभीत रहती है। इसीलिए वह इसे नियंत्रित करने, कुचलने के सारे कुचक्र चलती रहती है। शिक्षा व्यवस्था को अपने काबू में लेना, पुस्तकालयों को नष्ट करना या निरर्थक बना देना और साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों को पद, पुरस्कार, सम्मान आदि द्वारा अपने पक्ष में करना या उनकी रचनाओं पर प्रतिबंध लगाना, उनके विरुद्ध दमनात्मक कार्रवाई करना और देश से निर्वासित करना जैसे कदम उसकी रणनीति के अचूक उपाय होते हैं। 
सुप्रसिद्ध लेखक और विचारक रामविलास शर्मा का मानना है कि साहित्य की बुनियादी प्रकृति किसी भी कीमत पर रूढ़ियों को बर्दाश्त नहीं करती। उनके अनुसार जाति या समाज गतिरुद्ध, रूढ़िबद्ध जड़ इकाई नहीं है। वह सतत परिवर्तनशील, विकासमान, अवरोध पैदा करने वाली और अवरोधों को हटाने वाली इकाई है। रूढ़ि से उनका तात्पर्य यथास्थिति से है। सत्ता को अपना वजूद बनाए रखने के लिए यथास्थिति बनाए रखना जरूरी होता है। इसीलिए परिवर्तन का संवाहक साहित्य हमेशा इसके विरोध में खड़ा रहता है।
इस तरह साहित्य का यह उत्सवीकरण बाजार और उसके हितों को पालने-पोसने वाली सत्ता द्वारा उसकी प्रतिरोधी धार को कुंठित करने के षड्यंत्र से कम नहीं है। इससे असली मुद््दे यानी सामाजिक परिवर्तन से लेखक की दूरी बनती है और क्रांति साहित्य के एजेंडे से बहिष्कृत होती है।
साहित्यिक गतिविधियां विशेषत: उत्सवधर्मी गतिविधियां साहित्य का कोई भला नहीं करतीं, बल्कि उसकी वैचारिक विषयवस्तु को उथला बना देती हैं। इनमें प्रस्तुतियों की सार्थकता पर उतना जोर नहीं दिया जाता जितना औपचारिकता को निभाने पर। मीडिया कवरेज से ये थोड़े समय के लिए चर्चा में जरूर आ जाती हैं और इस तरह आयोजकों और संभागियों को थोड़ा तात्कालिक लाभ हो जाता है लेकिन ठोस हासिल कुछ नहीं होता। इसीलिए रामविलास शर्मा जोर देकर कहते हैं कि साहित्य का महत्त्वपूर्ण योगदान सिर्फ लेखन और कर्म, कर्म और लेखन की नियमित अदलाबदली से ही संभव है।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/42694-2013-04-18-06-43-41

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