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Friday, 19 April 2013 10:39
योगेश अटल 
जनसत्ता   19 अप्रैल, 2013: पिछले कुछ दिनोंसे यात्रा पर हूं और जिस शहर में गया वहां   उत्सुकतापूर्वक मैंने हिंदी के अखबार पढेÞ, ताकि जान सकूं कि उनमें किस   तरह की खबरें छपती हैं।  किसी भी दिन कोई ऐसा अखबार नहीं मिला, जिसमें जाति के विषय में खबर न छपी   हो। जाति का सम्मलेन, जाति की प्रतिभाओं का सम्मान, जाति के किसी समारोह   में प्रदेश के वरिष्ठ नेताओं की उपस्थिति, जबकि वे खुद उस जाति के नहीं थे,   या जाति के नाम पर वर्ण के लोगों- जिसमें कई जातियां जो उस वर्ण या   जाति-इतर समूह की हैं- का राजनीतिक एकता बनाने के लिए मिलाप। कहीं यह सूचना   कि एक ही जाति का दावा करने वाले कई अंतर्विवाही समूह- जो समाजशास्त्रीय   दृष्टि से जाति हैं- मिल कर यह आंदोलन खड़ा कर रहे हैं कि उन्हें भी पिछड़ी   जाति, आदिवासी या दलित का दर्जा दिया जाए। कुछ ब्राह्मणों ने- जो एक वर्ण   है, कई जातियों का संकुल- एक परशुराम सेना गठित की है कि वे भी आर्थिक   दृष्टि से पिछड़े हैं और उन्हें भी एक विशेष श्रेणी में रखा जाए। इससे   प्रेरित होकर राजपूत वर्ण के लोग भी अपनी कोई शक्तिवाहिनी सेना बनाने में   जुट रहे हैं। 
एक ओर लगता है कि जाति की संस्था टूट रही है, लोगों में   अंतरजातीय विवाह होने लगे हैं, व्यवसाय और जाति का रिश्ता भी टूटता जा रहा   है, वहीं राजनीति हावी होकर जाति की टूटती शाखाओं को पुनर्जीवित करने में   लगी है। और विडंबना यह है कि इसमें योगदान दे रही हैं वे पार्टियां, जो   अपने को सेक्युलर कहती हैं। 
जाति इक्कीसवीं सदी में भी प्रबल होती दिख   रही है। जब देश स्वतंत्र हुआ और गांधीजी ने जातिवाद और गरीबी के उन्मूलन की   बात कही तो हम लोग आश्वस्त हुए कि समाज की स्थिति में सुधार होगा।   स्वतंत्रता की परम उपलब्धि होगी जाति व्यवस्था की समाप्ति। मैंने शायद यही   सोच कर जाति व्यवस्था पर शोध करने का निर्णय किया कि इस संस्था का मरण से   पहले वस्तुपरक अध्ययन कर लिया जाए, क्योंकि जैसी जाति व्यवस्था उन दिनों के   गांवों में पाई जाती थी, वह भारत-शास्त्रियों द्वारा वर्णित और प्राचीन   ग्रंथों पर आधारित विवेचन से कोसों दूर थी। मनु या अन्य मुनियों ने वांछित   पर बल दिया था, न कि उनके काल में प्रचलित संस्था का वस्तुनिष्ठ वर्णन।   वांछित और वास्तविक में जो अंतर होता है, उसे भारत-शास्त्रियों ने गौण   गिना। विदेशियों ने भी वांछित के आदेशों को ही प्रचलित संस्था का वर्णन   समझने की गलती की। 
1972 में लंदन विश्वविद्यालय में जब मुझे चतुर्थ   महात्मा गांधी स्मारक व्याख्यान के लिए बुलाया गया, तब मैंने प्रसन्नता   व्यक्त करते हुए कहा कि भारत में जाति टूट रही है और खास बात यह है कि जाति   के माध्यम से जाति टूट रही है। जैसे लोहे को लोहा काटता है, वैसे ही जाति   को जाति काट रही है। आज मैं स्वीकार करता हूं कि जाति मरी नहीं है, बल्कि   वह नया स्वरूप धारण कर अपनी जगह कायम है। 
सही है कि आज की जाति वैसी   नहीं है जैसी मनु ने कभी वांछित के रूप में प्रस्तावित की थी, न ही वह हम   जैसे लोगों द्वारा अध्ययन किए हुए ग्रामों में यथावत है। जाति ने अपनी   लोचनीयता का भरपूर परिचय दिया है। लोग जाति की संस्था को ठीक से समझते   नहीं, लेकिन इस भ्रम में रहते हैं कि एक भारतीय होने के नाते वे जानते हैं   कि जाति क्या है। 
जिस अर्थ में जाति को समझना चाहिए, यानी एक सामाजिक   इकाई के रूप में, उसमें तो यह निस्संदेह टूट रही है। जाति पर   समाजशास्त्रियों ने जो लिखा है उसके अनुसार जाति का अर्थ छुआछूत, खान-पान,   रोटी-बेटी का व्यवहार, पहनावा और शुचिता-अशुचिता के मानदंड थे। आज के   संदर्भ में इन विभेदों का तेजी से लोप हो रहा है और जो भी जातियां इन पर   जोर दे रही हैं- चाहे वे निम्न श्रेणी की हों या उच्च श्रेणी की- उनका   व्यापक विरोध सार्वजनिक होता जा रहा है। जहां तक छुआछूत का प्रश्न है, आप   शहरों-कस्बों में देखिए; रेलगाड़ी, मंदिर, रेस्तरां में जाकर देखिए। लोग   घरों में नौकर रखते हैं तो आज उनकी जाति नहीं पूछते। 
अंग्रेजों के   जमाने के लेखों में सामाजिक जीवन के जो दुर्भाग्यपूर्ण वर्णन मिलते थे, वे   वर्तमान भारत के संदर्भ में एकदम झूठे जान पड़ते हैं। हमारे खान-पान में ऐसे   अंतर आए हैं कि आज शाकाहारी कही जाने वाली जातियों के युवक-युवती भी सामिष   भोजन करने लगे हैं। जातियों की पंचायतें बढ़ते हुए नागरीकरण के साथ कमजोर   पड़ने लगी हैं। जिस संस्कृतिकरण की श्रीनिवास ने चर्चा की थी, आज ठीक उसका   विपरीत हो रहा है। विवाह के संदर्भ में तो व्यापक परिवर्तन आए हैं।   अंतरजातीय विवाहों में बढ़ोतरी हो रही है। विरोधों के बावजूद सगोत्र विवाह   भी होने लगे हैं और उन्हें समर्थन भी मिलने लगा है। 
सच यह है कि   समाजशास्त्रीय दृष्टि से जिस समूह को जाति कहना चाहिए, उसका आम आदमी को   संज्ञान नहीं है। जाति पूछिए तो कोई अपने प्रदेश का नाम (जैसे पंजाबी,   बंगाली, मद्रासी) बताएगा तो कोई अपना ऋषिगोत्र (भारद्वाज, वशिष्ठ, भार्गव,   अंगीरा) बताएगा, तो कोई अपने परिवार से जुड़े पद का जिक्र करेगा (भंडारी,   खजांची, दलाल, मुंशी, पाठक)। ये जातिसूचक संज्ञाएं नहीं हैं और इनमें होने   वाले परिवर्तन जातिगत परिवर्तन नहीं माने जा सकते। इसी प्रकार गुर्जर, जाट,   ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि भी जाति से ऊपर के समूह हैं। ये सब उदाहरण इस बात   का प्रतीक हैं कि आम व्यक्ति जाति की संस्था से कितना अनभिज्ञ है। 
 एक और पक्ष यह है कि व्यवहार के रूप में जाति समूह एक क्षेत्र विशेष तक सीमित होता है, केवल   नाम-समय होने से वह एक क्रियाशील, जीवंत जाति नहीं बन जाता। उदाहरण के लिए,   गौड़ ब्राह्मण पूरे देश में पाए जाते हैं, लेकिन एक क्रियाशील समूह के रूप   में ये कई प्रांतीय इकाइयों में विभक्त हैं। मसलन, राजस्थान के उदयपुर नगर   में चार गौड़ ब्राह्मण जातियां हैं और चारों ही अंतर्विवाही हैं। एक ही नाम   होते हुए भी ये चार भिन्न समूह हैं। 
अब इनमें भी आपस में शादियां होने   लगी हैं और इस प्रकार रिश्तेदारी का दायरा बढ़ता जा रहा है। लेकिन जाति का   जो शासन था, वह मिटता जा रहा है। इसी प्रकार वर्ण के स्तर पर जाति के नाम   से विवाह होने लगे हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि एक अंतर्विवाही समूह के   रूप में जाति का क्षेत्र विकसित होकर वर्ण तक फैल रहा है और इस दृष्टि से   जाति की सीमाएं टूट रही हैं, 'नियमों' का उल्लंघन बढ़ रहा है। दूसरी ओर,   प्रजातंत्र की राजनीति में संख्या की दृष्टि से जातिसंकुल का महत्त्व बढ़ता   जा रहा है। यह विडंबना ही है कि जातिवाद को हमारा प्रजातंत्र प्रश्रय दे   रहा है। 
संक्षेप में कहूं तो आज के संदर्भ में परंपरागत जाति का प्रभाव   तो संकुचित हो रहा है, जो केवल नातेदारी तक सीमित हो गया है और उसमें भी   वह अब क्षेत्रों की सीमाएं लांघने लगा है। दूसरी ओर, राजनीतिक दृष्टि से वह   अपने दायरे का विस्तार कर वर्ण जैसे जाति-इतर समूह से संलग्न हो रहा है।
जाति   के नाम से होने वाली हमारी समस्त प्रक्रियाएं और अंत:क्रियाएं दो अलग-अलग   प्रांगणों में कार्यरत हैं। यहां मैं इस बात की ओर ध्यान आकर्षित करना   चाहता हूं कि विदेशी विद्वानों ने हमारे समाज को सोपानिक समाज या   हाइरार्किकल सोसाइटी कह कर यह सिद्ध करने की चेष्टा की कि उनका समाज   समतावादी है। अध्येताओं ने विभिन्न समाजों का अध्ययन करने के बाद  पाया है   कि दुनिया में एक भी समाज ऐसा नहीं है जहां सभी समान हों। जन्मजात   असमानताओं के साथ ही कर्मगत असमानताएं समाज में आने लगती हैं और इस प्रकार   समाज का स्तरीकरण होने लगता है। 
ऐसा आमतौर पर सभी क्षेत्रों में होता   है। अच्छा पढ़ने वाला बालक प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होता है तो कम पढ़ने   वाला या कम बुद्धि वाला छात्र कम अंकों से उत्तीर्ण होता या फेल हो जाता   है। इस प्रकार समान धरातल से यात्रा करने वाले कालांतर में आगे-पीछे हो   जाते और वर्गों में बंट जाते हैं। इस प्रकार, समता वाले समाज में भी   असमानताएं घुस आती हैं। वर्ग हो या फिर वर्ण, दोनों ही समाज को श्रेणीगत   करते हैं। अंतर है तो यह कि जन्मगत स्थितियां मुख्यतया अपरिवर्तनीय रहती   हैं, जो कर्म से बदली नहीं जा सकतीं, जबकि कर्मप्रधान पदों में   आरोहण-अवरोहण की संभावना होती है। 
भारत की पनपती हुई जाति-व्यवस्था ने   इस धारणा का भी खंडन किया है। अंग्रेजों के राज में जब दशकीय जनगणना   प्रारंभ हुई तो परिवारों से उनकी जाति के बारे में पूछा गया और उत्तरदाताओं   ने जो भी उत्तर दिया उसे ही दर्ज कर लिया गया। इसी का आधार लेकर कई निम्न   स्तर पर गिनी जाने वाली जातियों ने अपना नाम बदल कर खुद  को ऊंचा स्थान   दिलाने की चेष्टा की और उसमें वे सफल भी हुर्इं। नाम के अनुरूप उन्होंने   अपने खान-पान और रहन-सहन में भी परिवर्तन कर ऊंची जातियों जैसी जीवन-पद्धति   अपनाई। इस नए परिवर्तन की ओर श्रीनिवास का ध्यान गया और उन्होंने इसे   संस्कृतिकरण की संज्ञा दी। उनका यह संबोध भारतीय समाजशास्त्र को वर्षों तक   प्रभावित करता रहा। यह दुर्भाग्य है कि आज के राजनीति-प्रेरित लेखक इस   प्रक्रिया को श्रीनिवास का दिया हुआ 'प्रेसक्रिप्शन' कह कर उनकी निंदा करते   हैं। 
श्रीनिवास ने एक प्रचलित प्रक्रिया को उजागर किया था, न कि उसका   समर्थन। आज के संदर्भ में उस प्रक्रिया का ठीक उलटा हो रहा है। आरक्षण का   लाभ उठाने के लिए वे समूह और जातियां, जो कभी संस्कृतिकरण के माध्यम से   भारतीय समाज में अपना स्तर ऊपर उठा चुकी थीं, आज फिर से नीचे के स्तर पर   लौटना चाह रही हैं और अपने को नीचा कहने में गर्व का अनुभव करती हैं।   प्रजातंत्र, शिक्षा का प्रसार और आधुनिकता फिर से प्रगति के नाम पर परंपरा   को पोषित कर रहे हैं। मरती हुई जाति को प्राणदान दे रहे हैं। 
आज जाति   का परंपरागत जोर समाप्त हो रहा है, व्यवसाय और जाति के पर्याय लुप्त हो रहे   हैं, विवाह के लिए भी जाति की सीमाएं टूट रही हैं। सच तो यह है कि कभी भी   जाति और व्यवसाय एक दूसरे के पर्याय नहीं रहे। हां, कुछ ऐसे व्यवसाय थे,   जिन्हें अमुक जाति के लोग ही करते थे, पर जाति के सभी सदस्य उसमें लगे हों   ऐसा कम ही होता था। फिर, कुछ व्यवसाय खुले थे जिन्हें किसी भी जाति का   व्यक्ति कर सकता था। 
यह भी जानने की आवश्यकता है कि निम्न कही जाने   वाली सभी जातियां अस्पृश्य नहीं थीं। निम्न जातियों में भी छुआछूत का   प्रचलन था और आज भी है। चर्म उद्योग से जुड़ी जातियों में भी स्तरीकरण पाया   जाता है और इसलिए छुआछूत के लिए केवल ऊंची कही जाने वाली जातियों को दोषी   नहीं ठहराया जा सकता। 
जाति-व्यवस्था की इन बारीकियों को प्रस्तुत करना   एक समाज वैज्ञानिक का धर्म है और जो समाज विज्ञान का चोगा पहन कर भी   राजनीतिकों को खुश करने के लिए अर्धसत्य को प्रचारित करते हैं, वे एक   प्रकार से समाजविज्ञान के माध्यम से दुकान चला रहे हैं और उनसे संभल कर   रहने की आवश्यकता है।         (जारी)
 
 
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