Monday, October 14, 2019

छोटा नागपुर के आदिवासी संसोधित संविधान में उनकी सही हैसियत (1936 में लिखित) दिवंगत शरत चंद्र राय मूल अंग्रेजी से अनुवादः पलाश विश्वास



छोटा नागपुर के आदिवासी
संसोधित संविधान में उनकी सही हैसियत
(1936 में लिखित)
दिवंगत शरत चंद्र राय
मूल अंग्रेजी से अनुवादः पलाश विश्वास

1

प्रस्तावना

बिहार और ओड़ीशा प्रांत के चार इलाके गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट, 1919 के प्रावधानों के तहत पिछड़े इलाके (Backward tract) की श्रेणी में रखे गये। ये इलाके अनुगुल, संथाल परगना, संबलपुर और छोटा नागपुर हैं।
चूंकि इन चारों इलाकों के सामाजिक राजनीतिक इतिहास और संस्कृति भिन्न भिन्न हैं, इसलिए उनमें से हरेक के लिए प्रशासनिक बंदोबस्त अब तक सापेक्षिक तौर पर भिन्न भिन्न रहा है।
अनुगुल पहले ट्रिब्यूटरी स्टेट बउद का हिस्सा था,जिसे वहां रहने वाली जंगली खोंड आदिवासियों में प्रचलित निर्मम आदिम मेरिहा नरबलि प्रथा को रोकने के बहाने अंग्रेजों ने 1847 में बउद से जब्त कर लिया। तब से अब तक इस इलाके का प्रशासन बेहद सामान्य पितृसत्तात्मक तौर तरीके के साथ रेगुलेशन चतुर्थ,1904 के मुताबिक चल रहा है जो प्रांत के सामान्य प्रशासन से एकदम अलहदा है।
खेती बाड़ी से गुजर बसर करने वाले  संथालों और उनसे भी प्राचीन आदिम जनजाति सौरिया पहाड़िया के इलाके संथाल परगना में 1855 से अब तक  स्पेशल रेगुलेशन के अंतर्गत प्रशासन चलाया जाता रहा है। बहरहाल अनुगुल की तुलना में कम पिछड़ा माने जाने की वजह से इस जिले को 1920 से विधायिका में नुमाइंदगी की इजाजत मिली हुई है।
संबलपुर में देशी शासकों के शासनकाल में अनेक उलटफेर के बाद ब्रिटिश सरकार ने उसका अधिग्रहण कर लिया और उसे 1849 में साउथ वेस्टर्न फ्रंटियर एजंसी के हिस्सा बतौर छोटा नागपुर में शामिल कर लिया। फिर उसे 1860 में ओड़ीशा के हवाले करने के बाद फिर 1862 में सेंट्रल प्रोविंस और 1905 में बंगाल में शामिल किया गया और आखिरकार 1912 में ओड़ीशा को लौटा दिया गया। लेकिन अब तक वहां व्यवहारिक तौर पर  छोटा नागपुर की प्रशासनिक व्यवस्था की तर्ज पर प्रशासन चलाया जाता रहा है।
छोटा नागपुर, बेहतर कहें तो मौजूदा रांची, हजारीबाग और पलामू जिलों पर अंग्रेजों ने अठारवीं सदी के आखिरी पच्चीस सालों के दौरान कब्जा जमा लिया,जहां 1831 तक प्रशासन आर्डिनरी डिस्ट्रिक्ट रेगुलेशन के तहत चलाया जाता रहा। जो रामगढ़ के  जज-मजिस्ट्रेट-कलेक्टर के आधीन था। जिनका मुख्यालय बारी बारी से हजारीबाग जिले के चतरा और मौजूदा गया जिले के शेर घाटी हुआ करता था। मुख्यालयों से बहुत दूरी की वजह से इस दुर्गम जिले के आदिवासियों के लिए छोटा नागपुर में उनकी विरासती जमीन के हकहकूक पर होने वाले हमलों के खिलाफ सुनवाई का कोई खास साधन नहीं था और ऐसे हमले का सिलसिला उन दिनों का दस्तूर था। बहरहाल हमें बताया गया है कि कभी कभार रामगढ़ अदालत के नजीर को प्रशासन के कामकाज का निरीक्षण करके रपट देने के लिए विशेषाधिकार के साथ मौके पर पड़ताल के लिए भेज दिया जाता था। जिससे आदिवासियों की हिफाजत बहुत कम हो पाती थी और उन्हें शायद ही कोई राहत मिल पाती थी। जैसा कि सर विलियम्स हंटर ने लिखा है,` वे नये हुक्मरान की उपेक्षा के शिकार थे। बाहरी लोग उनका शोषण करते थे। फिर उन्हें उन सभी मौकों से वंचित कर दिया गया, जिसके तहत उन्हें अपने सरदार से अपनी तकलीफें कहकर उनसे राहत मिला करती थी। ‘1831 के कोल विद्रोह (Kol Insurrection) से फिर वह आग भड़क गयी जो लंबे समय तक सुलगती रही। (Stastical Account of Bengal,Vol.XVI.p.450).
जाहिर है कि इस विद्रोह के बाद छोटा नागपुर के आदिवासियों के वैध हितों की खास तौर पर रक्षा करने की जरुरत हुक्मरान को समझ में आ गयी। नतीजतन समूचा छोटानागपुर को एक अलहदा प्रशासनिक इकाई बना दिया गया,जिसमें सिंहभूम और मानभूम जिलों को भी शामिल कर लिया गया। इस नई प्रशासनिक इकाई के मुखिया बतौर एक नये पद का सृजन कर दिया गया। स्पेशल अफसर जो गवर्नर जनरल का एजंट था। गवर्नर जनरल के इस एजंट को रांची में तैनात कर दिया गया और उसके मुख्य सहयोगियों के जिला मुख्यालयों में। अदालतों के दिशानिर्देश के तहत पुराने जटिल कानूनी विधान (कोड) के बजाय नये सरलीकृत कानून लागू कर दिये गये।इससे कुछ हद तक आदिवासी जमीन के मालिकों की बेदखली पर अंकुश लगा जो अबतक निरंकुश तौर पर होती  रही थी।
दुर्भाग्य से दो दशकों के अंदर ही इस  नई प्रणाली के तहत आदिवासियों के हितों के संरक्षण के प्रावधान वक्त पूरा होने से पहले खत्म कर दिये गये। अपने हक हकूक की हिफाजत के लिए आदिवासियों के पर्याप्त शिक्षा हासिल करने  और बेहतर तौर पर सभ्य बनने से पहले ही छोटा नागपुर को फिर उसी पुरानी प्रशासनिक और विधायी प्रणाली के अंधेरे में फेंक दिया गया। हालांकि छोटा नागपुर को जिलों  को अब  `नान रेगुलेशन जिले’ का दर्जा दे दिया गया और इसके बाद उन्हें `अनुसूचित जिले ’ का दर्जा भी मिल गया। फिर केंद्र और प्रांतीय विधानमंडल के बनाये सारे आम कानून एक के बाद एक इन जिलों में भी लागू कर दिये गये। जिसका विस्तार डिवीजन तक हो गया। अब तक इसी तरह इरादों और उद्देश्यों के साथ छोटा नागपुर के तमाम जिले भी आम रेगुलेशन जिले बने रहे, जो प्रांत के सबसे विकसित जिलों की तरह वही  कानून, वही हाईकोर्ट, निचली अदालतों और राजस्व अधिकारियों के उसी वर्ग के अधीन बने रहे। आदिवासियों के खास हक हकूक की हिफाजत के लिए एक नाकाफी टिनेंसी एक्ट (Bengal Act I of 1879) और एक स्पेशल टेनुअर्स एक्ट (Bengal Act II of 1869) के सिवाय काई कारगर कदम उठाये नहीं गये, ऐसा लगता है। नतीजतन ऐसे कानूनी संरक्षण की अनुपस्थिति, स्थानीय अफसरान की लापरवाही और उदासीनता की वजह से आदिवासी भूमिधारी और गैरभूमिधारी खेत जोतनेवाले  किसानों को इस पूरी अवधि में जो नुकसान हुआ ,उसका कोई हिसाब जो़ड़ा नहीं जा सकता।छोटानागपुर के ये तमाम आदिवासी मजबूत लुटेरों के हमलों,फर्जीवाड़ों और ताकत के शिकार होते चले गये।1899 के बिरसा अनुयायियों के मुंडा विद्रोह तक आदिवासियों के पास जो भी कुछ मामूली तौर पर बचा खुचा था, उसकी हिफाजत के लिए सरकार ने कुछ भी नहीं किया, कोई कारगर कदम नहीं उठाये और इस विद्रोह ने उन्हें झकझोर कर जगा दिया।

II
रचनात्मक नीति का अभाव
बिरसा अनुयायियों के मुंडा विद्रोह के बाद ही आदिवासी किसानों की अकूत संपत्ति में से जितनी भी बाकी जमीन आदिवासियों के पास बची हुई थी, उसकी हिफाजत के नजरिये से  सर्वे और बंदोबस्त के लिए अभियान शुरु किये गये। बहरहाल इसका बेहद मामूली असर हो सका। फिरभी इसतरह के कदम से आदिवासियों को व्यापक पैमाने पर शांत कर दिया गया और उन्होंने अपनी  सारी ऊर्जा पूरे दिलोदिमाग के साथ  अपने सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक विकास के लिए विकसित नस्लों के अनुकरण में लगा दिया गया।
इस तरह बंगाल बिहार और ओड़ीशा प्रशासन की पंचवर्षीय रपट (1903-1908) रपट में हमें पढ़ने को मिलता हैः `अदालतों की उपेक्षा और स्थानीय अफसरान की उदासीनता की वजह से हाल के वर्षों तक कानून और व्यवस्था की विभिन्न एजंसियों की तरफ से मुंडा आदिवासियों के साथ बहुत ज्यादा अन्याय होता रहा है।जिससे उनमें से ज्यादातर के दिमाग में सरकार के खिलाफ बेहद कड़वापन भर गया।क्योंकि उनके हक में सरकारी हस्तक्षेप न होने की वजहें वे समझ नहीं पा रहे थे।’
1902 में जब सर्वे और बंदोबस्त के अभियान के तहत उनके पास बाकी बची जमीन के हकहकूक  तय कर दिये गये और 1908 में पास एक बेहतर टिनेंसी एक्ट के (हांलाकि तब भी त्रुटिपूर्ण) लागू कर दिया गया,तब जाकर कहीं छोटानागपुर के आदिवासी शांत हुए और उनके तमाम नेताओं ने आदिवासियों के सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक बेहतरी पर अपना ध्यान केंद्रित कर दिया। इस अवधि तक जो नतीजे मिले ,उसे काफी हद तक गौरतलब कहा जा सकता है।
हालांकि उन्होंने पहले ही बहुत कुछ खो दिया,बहुत तकलीफें उठायीं, इसके बावजूद जो कुछ उनके पास बचा था, उस पर उनका हक सुरक्षित हो जाने के बाद उन्होंने अपने हालात से समझौते कर लिये। बेशक उन्हें अपने विचारों और आकांक्षाओं के लिए नई दिशा मिल गयी। यह दिशा प्रांत की आम जनसंख्या के विचारों और आकांक्षाओं के मुताबिक थी।
इस सिलसिले में गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट,1919 के तहत गवर्नर जनरल और गवर्नर को जिन इलाकों को वे पिछड़े बैकवर्ड ट्रैक्ट बता रहे थे, वहां के लिए सेक्शन 52ए के तहत किसी  कानून को लागू होने से पूरी तरह या आंशिक तौर पर रोक लगाने के अधिकार दे दिये गये। यहीं नहीं, इन पिछड़े इलाकों के लिए जरुरत पड़ने पर नये नियम (रेगुलेशन) बनाने के लिए सेक्शन 71 के तहत उन्हें अधिकार भी दे दिये गये। लेकिन जहां तक छोटा नागपुर का संबंध है, सेक्शन 71 को इस हद तक लागू नहीं किया गया। इन पिछड़े इलाकों के लिए बिहार और ओड़ीशा सरकार के स्टेच्युरी कमीशन के लिए तैयार ज्ञापन में कहा गयाः `छोटा नागपुर के पांच जिलों की स्थिति (अन्य पिछड़े इलाकों,बैकवर्ड ट्रैक्ट से) भिन्न है। जिससे वहां रेगुलेशन के मार्फत कानून बनाने का कोई अधिकार नहीं है।’
गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट,1919 के सेक्शन 52ए के तहत गवर्नर जनरल और गवर्नर को मिले मामूली संरक्षणात्मक अधिकार के अलावा छोटानागपुर के सभी जिले अपने इरादे और उद्देश्य के साथ प्रांत के दूसरे `विकसित’ जिलों की तरह एक समान संवैधानिक स्थिति में थे। पिछले पंद्रह सालों के दौरान सेक्शन 52ए के तहत गवर्नर जनरल और गवर्नर को मिले संरक्षणात्मक अधिकार का इस्तेमाल सिर्फ एक बार सिर्फ एक कानून के सिर्फ एक सेक्शन को लागू करने से रोकने के लिए हो सका। इस पर तुर्रा यह कि (जिला परिषद के चेयरमैन के चुनाव पर) यह रोक सिर्फ इन तमाम जिलों में से सिर्फ एक ही जिले में हटायी  गयी है जबकि  बाकी जिलों में वह रोक जल्दी हटाये जाने की उम्मीद की जा रही  है।
दरअसल जहां तक छोटा नागपुर का संबंध है, सेक्शन 52ए के तहत संरक्षण लागू करने में शायद इतनी देरी हो गयी है कि उसका कोई खास व्यवहारिक उपयोग बचा नहीं है। बल्कि सच यह है कि इसका इस्तेमाल छोटानागपुर के आदिवासियों के शोषण के इतिहास के त्रासद युग के अवसान के बाद जाकर कहीं हो सका। जाहिरा तौर पर इसका किसी तरह के व्यवहारिक इस्तेमाल की गुंजाइश बची नहीं है।बहरहाल विरोधी राजनीतिक दबाव के बावजूद गवर्नरों और कुछ स्थानीय अधिकारियों की सहानुभूति दरअसल देशी लोगों की तुलना में आम तौर पर कहीं ज्यादा थी और इसी वजह से आदिवासियों के हितों की पूरी तरह उपेक्षा भी नहीं हो रही थी। इसके बावजूद ऐसा कतई कहा नहीं जा सकता कि इस आंशिक संरक्षणात्मक नीति के अलावा छोटा नागपुर के आदिवासियों के सामाजिक ,आर्थिक राजनीतिक उत्थान के लिए सरकार व्यवस्थित तरीके से कोई काम कर रही थी या इस मकसद से उसकी कोई रचनात्मक नीति बना ली थी।
जाहिरा तौर पर जब नये संवैधानिक सुधार लागू किये गये,उस वक्त बहुत लोगों को उम्मीद थी कि पुराने कानून के तहत बैकवर्ड ट्रैक्ट इलाकों में छोटानागपुर के सबसे विकसित होने के आधार पर उसे प्रांत के दूसरे जिलों के बराबर कानूनी हक हकूक निश्चित तौर पर आदिवासियों के आर्थिक और सांस्कृतिक विकास के साथ उनके खास हितों के संरक्षण के लिए जरुरी रक्षाकवच के साथ मिल जायेंगे।
गौरतलब है कि इन आदिवासियों को बदलते हुए हालात के मुताबिक जिस हद तक वे कर सकते थे, खुद को ढालने के लिए बेसहारा छोड़ दिया गया जबकि अतीत में उन्होंने बहुत कुछ खो दिया, बहुत तकलीफें झेलीं और अब वे अपने पांवों पर खड़े होने भी लगे हैं। हालांकि उनके संरक्षण के लिए अब भी कुछ कदम उठाये जाने चाहिए थे लेकिन हकीकत यह है कि अब उन्हें सिर्फ कानून के मुख्य सहारे की जरुरत नहीं है।
बहरहाल नये रिफार्म बिल में उनकी उम्मीदों का गहरा झटका लगा। क्योंकि छोटानागपुर की राजनैतिक हैसियत में कोई सुधार करने के बजाय इस बिल की छठी अनुसूची के तहत छोटानागपुर और संबलपुर को संथाल परगना और अनुगुल के साथ आंशिक तौर पर अलहदा इलाका,एक्सक्लुडेड एरिया बतौर  नत्थी कर दिया गया।इस तरह बड़ी निर्ममता के साथ इन भिन्न भिन्न  इलाकों के अपने अपने प्रशासनिक इतिहास, शैक्षणिक विकास और उनकी राजनैतिक हैसियत  को सिरे से नजरअंदाज कर दिया गया। यहां तक कि आदिवासी इलाकों के प्रशासन के बारे में विधान परिषद  में  बातचीत और सवाल जवाब करने के उनके नुमाइंदों के हक भी छीन लिये जाने का प्रस्ताव किया गया है।

III

आधिकारिक आपत्तियां

18 फरवरी,1935 को बिहार विधान परिषद ने बिना मत विभाजन के परिषद के एकमात्र आदिवासी निर्वाचित सदस्य की तरफ से पेश प्रस्ताव पास करके सरकार से सिफारिश कर दी कि छोटा नागपुर के किसी भी हिस्से को` अलहदा एक्सक्लुडेड या आंशिक रुप में अलहदा पार्शियली एक्सक्लुडेड इलाका न बनाया जाय’। इस प्रस्ताव से आदिवासियों के लिए उनके वैध हितों के संरक्षण के लिए बतौर अल्पसंख्यक अपने हक हकूक हासिल कर लेने का रास्ता खुल गया। लेकिन प्रस्ताव पर बहस के दौरान सरकार की ओर से माननीय श्री हुब्बैक ने न सिर्फ इस प्रस्ताव का विरोध कर दिया बल्कि उससे आगे बढ़कर सभी उम्मीदों के विपरीत ऐलान कर दिया कि जहां तक कि छोटा नागपुर के आदिवासियों का संबंध है, हालांकि वे छोटा नागपुर में जनसंख्या के 40 प्रतिशत हैं और पूरे बिहार प्रांत की कुल जनसंख्या के 13 प्रतिशत, उन्हें दूसरे मान्यताप्राप्त अल्पसंख्यकों की तरह अल्पसंख्यक माना नहीं जा सकता।बिहार सरकार के इस रवैये को जो कारण उन्होंने बताये वे इस प्रकार हैंः
  1. उन्होंने सभ्यता का वह स्तर हासिल नहीं किया है,जैसा दूसरे अल्पसंख्यकों ने हासिल कर लिया है। धनबल और हैसियत में भी वे उनके बराबर नहीं हैं।
  2. साक्षरता परीक्षण में भी देखा गया है कि वे सामान्य स्तर तक पहुंचने के लिए अभी उन्हें बहुत फासला तय करना बाकी है।
  3. वे राजनैतिक तौर पर भी उतने संगठित नहीं हैं ,जितने कि दूसरे समुदाय हैं।
  4. और देश में अमन चैन और अच्छा राजकाज बहाल रखना जरुरी है।


IV

आदिवासियों की संस्कृति का स्तर

मैं अपनी जानकारी की रोशनी के मुताबिक इन तमाम बिंदुओं पर सिलसिलेवार एक के बाद  संक्षेप में चर्चा करने की कोशिश कर रहा हूं। चूंकि यह सवाल छोटा नागपुर डिवीजन के आदिवासियों को लेकर उठाया गया है तो मैं अपनी चर्चा इसी डिवीजन के दायरे में ही कर रहा हूं।
जहां तक यह सवाल है कि छोटा नागपुर के आदिवासियों की साक्षरता का स्तर प्रांत के दूसरे अल्पसंख्यकों के बराबर नहीं है, किसी भी पैमाने पर इस बात के पक्ष में यह दलील नहीं दी जा सकती कि  साक्षरता के मामले में छोटानागपुर के आदिवासी मान्यताप्राप्त अल्पसंख्यकों दलित वर्ग और मजदूरों के मुकाबले कमतर हैं। जबकि हालांकि दूसरे मान्यताप्राप्त अल्पसंख्यकों की साक्षरता का स्तर आदिवासियों की तुलना में थोडा़ बहुत बेहतर हो सकता है लेकिन उनमें भी स्तर की भिन्नता है। दूसरी तरफ, छोटा नागपुर के मुख्य आदिवासी समूहों मुंडा, उरांव,खेड़िया, संथाल, हो और भूमिज की भी अपनी अपनी खास संस्कृति है जो कम महत्वपूर्ण या किसी भी तरह से निचले स्तर की नहीं है।
यह सभी लोग मानते हैं कि छोटा नागपुर में जमीन आबाद उन्हीं लोगों ने किया और गांव भी उन्हीं लोगों ने बसाये।बहुत पुराने समय से उनका परंपरागत कारगर ग्राम स्वराज गांव के सरदार और उनके सहयोगियों की अगुवाई में बहाल रहा है जिसके तहत गांव के बुजुर्गों की पंचायत न्यायिक और कार्यकारी कामकाज निबटाती रही है। जबकि अविवाहित युवा गांव की सुरक्षावाहिनी बतौर काम करते रहे हैं। उन्होंने आगे फिर अपने स्वराज का विकास कर लिया और गांवों के संघ बतौर परहा और पिरा के स्तर तक ग्राम स्वराज को विस्तृत और विकसित कर लिया। संघीय कार्यकारिणी और न्यायिक परिषद बतौर परहा पंचायतें भी उन्होंने बना लीं। वे इससे भी आगे के स्तर तक संघीय ढांचे में संगठित होते चले गये। उन्होंने व्यापक ग्राम स्वराज का संघीय ढांचा परहा पंचायतों के ताने बाने बुनने के जरिये तैयार कर लिया। इस संघीय ढांचे में राज्य के बीज अंकुरित होने लगे। लेकिन विपरीत परिस्थितियों की वजह से ग्राम स्वराज के विकास की यह प्रक्रिया रुक गयी। हालांकि पिछले सौ साल या उसके आसपास की अवधि में उनके ग्राम स्वराज के ढांचे के अंतर्गत उनके तमाम संगठन काफी कमजोर हो गये। क्योंकि अपरिहार्य कारणों से उनके परंपरागत पुराने  कामकाज में रुकावटें आयीं और इस संगठनों की ताकत घटती चली गयी। इसके बावजूद इनका बाहरी ढांचा अभी बहाल है और इन संगठनों के कुछ सामाजिक और न्यायिक कामकाज अभी बदस्तूर जारी हैं। छोटा नागपुर में किसी अजनबी को रांची जिले के कुछ आदिवासी गांवों में राजा, दीवान, पांडे, कोटवारे जैसी पदवियों का सामना करके अचरज भी हो सकता है। जो उनके गौरवशाली अतीत की याद दिलाता है। छोटा नागपुर के मुंडा आदिवासी मूलतः मैदानी घाटी इलाकों और आखिरकार पहाड़ों और पठारों में अपनी हुकूमत की परंपराओं को अभी बचाये हुए हैं। जैसे कि भारतीय समाजशास्त्र और नृतत्व विज्ञान के सभी छात्रों को मालूम होगा कि बंगालियों, बिहारियों और उड़िया जनसमूहों की सिर्फ नस्ली बनावट में ही इन आदिवासियों की कमोबेश भूमिका नहीं रही है, बल्कि उनके सामाजिक,धार्मिक और सांस्कृतिक उपकरणों में भी उनका योगदान रहा है।
अतीत से वर्तमान में लौटें तो हम देखते हैं कि आदिवासियों की मौजूदा पीढ़ियां अपनी विरासत की पुराने ढांचों की  नींव पर नये सिरे से निर्माण में लगे हुए हैं। उनकी सभाओं, सहकारी समितियों और व्यापक पैमाने पर  दूसरे सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक सुनियोजित संगठनों में उनकी सांगठनिक शक्ति और अनुशासन की अभिव्यक्ति हुई है।
जहां तक साहित्य का सवाल है, हालांकि छोटा नागपुर के आदिवासियों का अपना कोई लिखित साहित्य नहीं है, लेकिन आज कम से कम  उनके अनेक गीतों में उच्च स्तर का कवित्व है। कविता के गुणों से भरपूर ये गीत बेहद सुंदर तो हैं ही, इनकी विंब संरचना की सादगी और सुंदरता पश्चिमी कवियों जैसे राबर्ट बर्न्स की कविताओं की याद दिलाती हैं।
आदिवासियों के बीच काम करने वालों को धन्यवाद,जिनमें खास तौर पर ईसाई मिशनरी उनके बीच करीब सौ साल से काम कर रहे हैं। ईसाई मिशनरियों और सरकार की शिक्षा के लिए दी जाने वाली मदद से उनमें से एक वर्ग को अंग्रेजी शिक्षा मिली है और उनमें से कुछ ने तो यूरोप और अमेरिका से भी शिक्षा हासिल की है। इनमें से अनेक ने भारतीय विश्वविद्यालयों से शिक्षा ली है। जिनमें से कुछ प्रांतीय सरकार और अधीनस्थ सरकारी सेवाओं में जिम्मेदार पदों पर काम कर रहे हैं। कुछ उदार पेशेवर हैं तो कुछ इस प्रांत और प्रांत के बाहर भी जिंदगी में विभिन्न जिम्मेदार पदों पर काम कर रहे हैं। उन्होंने सुधारों के लिए सोसाइटियों और सभाओं का गठन किया है और वे एक से अधिक सामयिक पत्र का प्रकाशन भी कर रहे हैं। खास तौर पर पिछले तीस सालों के दरम्यान उनमें सांस्कृतिक विकास की दिशा में चहुंमुखी उल्लेखनीय प्रगति हुई है, यह खासतौर पर गौरतलब है। उनकी पुरानी  नस्ली खर्चीलेपन की आदत की जगह बहुत सारे मामलों में किफायत के साथ आपस में एक दूसरे की, खुद की मदद और एक दूसरे से सहयोग करने की की भावना ने ले ली है। यही नहीं, बड़ी संख्या में शिक्षित लोगों ने नस्ली आत्म विकास पर ध्यान केंद्रित कर लिया है। उनकी सभाओं में अपने लोगों के कल्याण के  कार्यक्रमों को तेज करने के मकसद के साथ सामाजिक,आर्थिक और यहां तक कि राजनीतिक मुद्दों पर विचार विमर्श होता है और वे व्याख्यान और संवाद के जरिये अपनी राय और अपने विचारों को आगे बढ़ाने लगे हैं। ताकि वे अपने समुदाय में समाजिक सुधारों और आर्थिक और राजनीतिक बेहतरी के लिए जनमत बना सके। आदरणीय श्रीमाऩ हुब्बाक ने भी खुद हाल में उनके संगठनों की तरफ से पास प्रस्तावों का उल्लेख करते हुए उन्हें महत्वपूर्ण भी माना है। आदिवासियों की तरफ से स्टेच्युरी कमीशन के सामने इस सिलसिले एक शिष्टमंडल ने मजबूती के साथ अपना पक्ष भी रखा है।
दरअसल काफी हद तक ईसाई मिशनरियों के असर में और कुछ हद तक सरकार प्रबंधित और सरकारी मदद से चलने वाले शैक्षणिक संस्थानों की वजह से छोटा नागपुर के आदिवासियों के बौद्धिक और सामाजिक विकास में पिछले पचास सालों में बहुत बड़ी प्रेरणा मिली है। यही नहीं, इससे भी पहले आदिवासियों ने छोटा नागपुर के विभिन्न जन समुदायों के बीच सिर्फ सामाजिक ही नहीं बल्कि राजनीतिक तौर पर खास दर्जा हासिल कर लिया था। यहां तक कि आदिवासी गांवों के सरदारों और परहा के मुखियाओं का आज भी सिर्फ उनके अपने लोगों पर ही नहीं, बल्कि पड़ोसी हिंदुओं और मुसलमानों में भी असर बना हुआ है। उनमें से कुछ तो गांवों के मालिक ही बन गये हैं और करीब करीब उन सबके पास विरासत में मिली अपनी  संपत्तियां है और  कुछ मामलों में तो यह संपत्ति काफी है। उनमें से कुछ लोग कारोबार चला रहे हैं तो कुछ बैंकर भी हैं। संपत्ति और हैसियत के मामले में आदिवासियों में अनेक टेनुयर होल्डर हैं तो कुछ गांव या गांवों के समूह के मालिकान भी हैं और जाहिरा तौर पर उनकी हैसियत बहुत ऊंची है। इनमें से कुछ लोगों की चर्चा बड़े जमीदारों को कर्ज (कई मामलों में हजारों रुपये ) देने के लिए होती है। इन इलाकों में उनकी समाजिक हैसियत पेशक काफी ऊंची है। इस तरह साफ जाहिर है कि इस देश पर उनका दावा किसी मायने में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि उनकी कोई संस्कृति और सभ्यता नहीं है।
बौद्धिक क्षमता के पैमाने से छोटा नागपुर के आदिवासी इस प्रांत और किसी भी दूसरे प्रांत के ज्यादा विकसित समुदायों की तुलना में कतई पीछे नहीं हैं। यह सिर्फ आगे विकास के लिए  सही मौका न मिलने और दूसरी सभ्यताओं के साथ सही और पर्याप्त संपर्क स्थापित न होने का मामला है, जिस वजह से वे पिछड़े हैं, जबकि उनमें से एक बड़ा हिस्सा  सही मौकों के के लिए बिल्कुल तैयार हैं। अब तक जो भी सुविधाएं उन्हें दी गयी हैं, उन्होंने साबित कर दिया है कि वे उनका सही इस्तेमाल करते हैंऔर फायदा भी उठाते हैं।
जहां तक आदरणीय श्रीमान हुब्बाक महोदय उन्हें अलहदा रखने की दूसरी वजह साक्षरता, खासकर अंग्रेजी ज्ञान  में उनके पीछे होना बताते हैं ,उस सिलसिले में निवेदन है कि उपलब्ध सरकारी आंकड़े उनके  इन विचारों पर आधारित प्रस्ताव का पूरी तरह समर्थन नहीं करते नजर नहीं आते हैं। किसी भी पैमाने के लिहाज से छोटा नागपुर डिवीजन में साक्षरता दर सूबे के  सबसे ज्यादा विकसित किसी डिवीजन से कम नहीं प्रतीत होती है। किसी खास जनजाति की प्रांतीय आंकड़े को किसी दलील का आधार नहीं बनाया जा सकता, जिनका एक बड़ा हिस्सा जागीरदारी (सामंती) राज्य ओड़ीशा में बसे हुए हैं ,जहां साक्षरता दर सूबे में  सबसे कम है और आदिवासियों में तो साक्षरता नहीं के बराबर है। हम इस मामले में पूरी तरह छोटानागपुर के आंकड़ों के साथ हैं और छोटानागपुर के आंकड़ों की ही तुलना सूबे के दूसरे डिवीजनों के मुकाबले रखना चाहते हैं।
पिछले 16 जनवरी के विधान परिषद में संयुक्त संसदीय समिति की रपट के सिलसिले में पेश प्रस्ताव पर माननीय श्रीमान हुब्बाक ने जो वक्तव्य रखा,उसके मुताबिक किसी खास इलाके को आंशिक रुप से `अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड इलाके’ में शामिल करने और उसे विकसित इलाकों के मुकम्मल हक हकूक से वंचित करने का एकमात्र औचित्य उस इलाके की साक्षरता में और खास तौर पर अंग्रेजी ज्ञान में पिछड़ापन है। बहरहाल किसी जिले या डिवीजन के इस `पिछड़ेपन’ या विकास  की माननीय श्रीमान हुब्बाक की `निरंकुश और निर्णायक कसौटी‘ के आधार पर भी, जिसके मुताबिक जल्द ही लागू किये जाने वाले संशोधित संविधान के तहत संबद्ध इलाके की राजनैतिक हैसियत और कानूनी स्थिति तय होनी है, छोटा नागपुर अब  उन पिछड़े इलाकों के व्यापक हिस्से में शामिल नहीं किया जा सकता, जहां साक्षरता का स्तर बाकी प्रांत के मुकाबले निचले दर्जा का है।
दरअसल हकीकत यह है कि प्रांत के दूसरे डिवीजनों से पिछड़ने की बात तो रही दूर, बल्कि कुछ ही समय के भीतर छोटा नागपुर ने काफी तरक्की कर ली है और आम साक्षरता के साथ साथ अंग्रेजी शिक्षा में भी छोटा नागपुर डिवीजन प्रांत के दूसरे डिवीजनों के मुकाबले अग्रिम स्थान पर है।
जनगणना के ताजा आंकड़ों ने इसे निर्णायक तरीके से साबित भी कर दिया है। इन आंकड़ों के मुताबिक आम साक्षरता के मामले में छोटा नागपुर करीब करीब दक्षिण बिहार के स्तर तक पहुंच गया है। जबकि अंग्रेजी शिक्षा के मामले में छोटा नागपुर डिवीजन ने दूसरों डिवीजनों को पीछे छोड़ दिया है।
प्रति दस हजार की जनसंख्या के हिसाब से मीडिल या उससे ऊंचले दर्जे की परीक्षाएं पास करने वालों में उत्तरी बिहार के 65 पुरुष और 3 स्त्रियां हैं, दक्षिण बिहार में 96 पुरुष और 6 स्त्रियां हैं जबकि इनके मुकाबले छोटा नागपुर डिवीजन में 90.8 पुरुष और 8.4 स्त्रियां। ऐसे स्त्री पुरुष मिलाकर कुल शिक्षित लोगों की संख्या उत्तर बिहार में 42, दक्षिण बिहार में 51 और छोटा नागपुर डिवीजन में 50.8 है। अंग्रेजी शिक्षा के मामले में 5 से 20 साल की उम्र के  उत्तर बिहार में 70 पुरुष और 4 स्त्रियां है, दक्षिण बिहार में 119 पुरुष और 11 महिलाएं हैं तो इनके मुकाबले छोटा नागपुर डिवीजन में यह संख्या काफी ज्यादा 120.6 पुरुष और 15.2 स्त्रियां हैं। जहां तक 20 साल या उससे ज्यादा उम्र वालों में अंग्रेजी शिक्षा वाले पुरुषों और स्त्रियों की संख्या है तो यह उत्तर बिहार में 85 पुरुष और 4 स्त्रियां हैं तो दक्षिण बिहार में 140 पुरुष और 11 स्त्रियां हैं जबकि छोटा नागपुर डिवीजन में यह संख्या भी काफी ज्यादा 152.6 पुरुष और 16.6 स्त्रियां हैं।
जैसा कि माननीय श्रीमान हुब्बाक ने सही तौर पर कहा है कि प्रांत की मुख्य देशी भाषा में शिक्षा और अंग्रेजी शिक्षा के पैमाने के तहत तरक्की की कसौटी पर ही किसी इलाके को पिछड़ेपन के दर्जे से अगला ऊंचला  विकसित दर्जे पर प्रोन्नत किया जाना चाहिए तो जाहिर है कि छोटा नागपुर इस प्रोन्नति का हकदार है। इस लिहाज से छोटा नागपुर के आदिवासियों को कानूनन अल्पसंख्यक का दर्जा मिल जाना चाहिए।
माननीय श्रीमान  हुब्बाक के ही फैसले के तहत  उन्हींकी तय `निरंकुश और निर्णायक कसौटी’ छोटानागपुर अथवा कम से कम रांची जिले के पिछड़ेपन की पड़ताल होनी चाहिए क्योंकि अतीत चाहे कुछ भी रहा हो, इन्हें प्रांत के पिछड़े इलाकों में  किसी भी कीमत पर शामिल नहीं किया जा सकता।
हाल के वर्षों में शिक्षा और सभ्यता के मामलों में छोटा नागपुर ने जो अभूतपूर्व प्रगति की है, उस नजरअंदाज करते हुए छोटा नागपुर को अनुगुल और यहां तक कि संथाल परगना के दर्जे में आंशिक अलहदा ,पार्शियली एक्सक्लुडेड इलाका के निचले दर्जे में रखना छोटानागपुर के आदिवासी नेताओं को स्वाभाविक रुप से  यह सोचने के लिए मजबूर कर देगा कि उनके साथ अन्याय हो रहा है और यह उनके लोगों के नस्ली आत्मसम्मान के खिलाफ है। गौरतलब है कि ये आदिवासी नेता अपने समुदाय के नेताओं में काफी आगे हैं।सदन में यह प्रस्ताव पेश करने वाले बिहार विधान परिषद के आदिवासी सदस्य ने इस बिंदु पर खास जोर दिया है।
इस मामले में आदिवासियों की शिकायत को शायद कमोबेश भावनात्मक समझा जा सकता है। यदि ऐसा भी है तो यह भी गौरतलब है कि इंसानियत  के मामलात में भावनाओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। खासतौर पर थोड़े कम कुलीन आदिवासियों में तो इसका खास महत्व है। राजनीति के विशेषज्ञ और संविधान निर्माता ऐसी आपत्तियों को भावनात्मक बकवास समझकर सिरे से खारिज नहीं कर सकते। भावनाओं को वजूद से बाहर खींचकर निकाला नहीं जा सकता। अच्छाई के लिए या बुराई के लिए भी इन भावनाओं के संभावित असर को सुरक्षित तरीके से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
पढ़े लिखे आदिवासियों में नस्ली चेतना, नस्ली गौरव, और यहां तक कि  राजनीतिक चेतना और स्वतंत्रता की भावना के तेज विकास बल्कि पुनरुत्थान के मद्देनजर  इस पर हैरत नहीं होनी चाहिए कि इन  आदिवासियों को  पिछड़ा और संरक्षित कमतर समुदाय का दर्जा  दिया जाना उनमें अपमान बोध और गुस्सा पैदा करेगा। ऐसा शायद सभी आदिवासी नेताओं में न हो ,लेकिन उनमें जो थोडे ज्यादा जोशीले हैं, उनपर ऐसा असर जरुर होगा।
जैसे कि  1928 में स्टेच्युरी कमीशन में आदिवासी जनता के नेता रेवरेंड ज्वेल लाकड़ा ने श्री हरि सिंह गौड़ के आदिवासियों को `पिछड़ा’ कहने पर ऐतराज जताया था, क्योंकि आदिवासियों को इस तरह पिछड़ा बताना उनमें आत्मसम्मान और स्वतंत्रता की लहर रोकने के लिए सुनियोजित है जिसका विकास आगे और हो सकता है,ऐसा उन्होंने अपने उस जबाव में साफ कह दिया था।
फिर 21 अगस्त,1928 को एक और आदिवासी नेता देवेंद्र नाथ सामंत ने बिहार विधान परिषद में साइमन कमीशन के साथ सहयोग के लिए समिति के गठन के लिए पेश सरकारी प्रस्ताव पर बोलते हुए इस भावना को असाधारण तरीके से अभिव्यक्ति दी, जब उन्होंने आवेश में आकर कह दिया, `हम आदिवासियों को अच्छी तरह मालूम है कि जब सरकार बीच बीच में आदिवासी हितों या उनसे संबंधित जरुरी मामलात पर कार्रवाई करने का दिखावा करती है तो यह उनके अपने ही मकसद को पूरा करने के मकसद से किया जाता है।’ अगर श्री सामंत का यह बयान सिर्फ उनकी निराशा की ढीठ अभिव्यक्ति नहीं है तो यह समझना चाहिए कि श्री सामंत को अफसोसजनक तरीके से गलत समझा गया। मुझे तो उनके इस लापरवाह तरीके से कुछ ज्यादा ही बोल देने की व्याख्या करते हुए लगता है कि उनकी भाषा में गुस्से का लहजा था, जो उनके लोगों को पितृसत्तात्मक सरकार की ओर से ऐसी `पिछड़ी नस्ल’ का दर्जा दिये जाने के खिलाफ उनमें पैदा हो गयी हीनताबोध की वजह से है क्योंकि सरकार का रवैया उन्हें `पिछड़ी नस्ल’ का बताते हुए उनके मां बाप जैसा बर्ताव करने का  है।
यहां तक कि काफी संजीदा दिमाग के आदिवासियों के बुद्धिमान मित्र रांची के दिवंगत बिशप वान हुयेक ने आदिवासियों के आत्मसम्मान को जख्मी न करने पर खास जोर दिया है। साइमन कमीशन के समक्ष इस सवाल पर कि क्या वे इस इलाके के लिए `ज्यादा संरक्षणात्मक कदम उठाये जाने के पक्ष में हैं या इसके लिए अलग प्रशासनिक इंतजाम के’, उन्होंने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि `मैं निश्चित तौर पर अलग प्रशासन के दूसरे विकल्प को चुनना चाहुंगा क्योंकि अगर आपको विशेष संरक्षण दिया जाता है तो इससे निश्चित तौर पर आपका आत्मसम्मान नहीं बढ़ता है और ऐसा कोई बंदोबस्त आपको लगातार इस बात का अहसास करायेगा कि आप दूसरों के मुकाबले हीन हैं। जाहिर है कि अगर आप आजाद हैं तो आपको आगे और किसी संरक्षण की जरुरत नहीं है।’ इससे भी आगे बढ़कर उन्होंने यह भी कह दिया, `किसी मशीनरी बनाने ( छोटा नागपुर के लिए अलग सही प्रशासनिक मशीनरी) के सिलसिले में आदिवासियों के आत्म सम्मान का  खास ख्याल रखा जाना चाहिए।उन्हें लगातार यह महसूस करने के लिए कतई मजबूर नहीं किया जाना चाहिए कि हम दूसरों के मुकाबले कमतर हैं तो हमें इसकी कोई परवाह नहीं करनी चाहिए।’
अब जबकि छोटा नागपुरी जनता देख रही है कि उन्हें सिर्फ `रेगुरलेशन गवर्न्ड’ संथाल परगना ही नहीं, बल्कि अबतक `अलहदा, एक्सक्लुडेड ‘अनुगुल के साथ एक ही दर्जे में डाला जा  रहा है तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं है कि वे इसे गलत तरीके से राजनीतिक दर्जा घटाने की कार्रवाई मानें और इससे  अपना अपमान भी समझ लें। इसके साथ उनमें नाइंसाफी और अन्याय की भावना इस हकीकत के मद्देनजर और प्रबल हो सकती है क्योंकि जहां तक छोटा नागपुर का संबंध हैं, वहां दलित वर्ग के लोग दरअसल गांव के नौकर और मजदूर होते हैं और वे `लकड़ियां काटते और इकट्ठी करते हैं’ लेकिन उन्हें आदिवासी भी `पानी लेने की इजाजत’ नहीं देता और उन्हें भी कानूनी तौर पर अल्पसंख्यक का दर्जा मिल गया है ,जिसके तहत उन्हें सूबे की विधायिका में ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला है और संघीय विधायिका में भी कुछ प्रतिनिधित्व मिल गया है,जबकि प्रांतीय परिषदों में ज्यादा और संघीय विधायिका में कुछ प्रतिनिधित्व की आदिवासियों की अपनी मांग पर कोई सुनवाई नहीं हुई।


V

आदिवासियों के राजनीतिक संगठन

आदरणीय श्रीमाऩ हुब्बाक की आपत्ति की तीसरी दलील यह है कि आदिवासी मजबूती के साथ संगठित नहीं हैं। इस सिलसिले में गौरतलब हो सकता है कि भारत के दलित और मेहनतकश वर्ग के लोग बिना बाहरी मदद और दिशा निर्देश के बिना राजनीतिक संगठन बनाने के काबिल मुश्किल से बताये जा सकते हैं,जबकि छोटा नागपुर के आदिवासियों की सांगठनिक ताकत काफी है और अपने हक हकूक के लिए वे साझा कार्रवाई करते रहते हैं। साइमन कमीशन के समक्ष पेश किये जाने के लिए  पिछड़े इलाकों के बारे में बिहार और ओड़ीशा सरकारों के ज्ञापन के पेज नंबर 16 में इसीलिए हमें बताया गया है कि दक्षिण मानभूम, रांची और सिंहभूम के  चुनाव क्षेत्रों से आदिवासी `उनके हक हकूक की आवाज बुलंद करने वाले किसी उम्मीदवार को जिताने में सक्षम हैं।’ फिर हम यह  पाते हैं कि सिर्फ ये चुनाव क्षेत्र ही  ऐसे हैं,जहां आदिवासी मतदाताओं की संख्या कुल मतदाताओं की संख्या के 50 प्रतिशत से ज्यादा हैं। मसलन दक्षिण मानभूम में 52 प्रतिशत, सिंहभूम में 63 प्रतिशत और रांची में 66 प्रतिशत। जिन चुनावक्षेत्रों में आदिवासी मतदाताओं की संख्या इतनी कम है जैसे हजारीबाग में 18 प्रतिशत,पलामू में 20 प्रतिशत और उत्तर मानभूम में 29.5 प्रतिशत,वहां चुनाव नतीजे इससे अलग नहीं हो सकते,जैसे होते रहे हैं। नये संवैधानिक सुधारों के नतीजतन मताधिकार का जो विस्तार हुआ है, उसके तहत यह उम्मीद करना बहुत हद तक तर्कसंगत है कि इन इलाकों के आदिवासियों को अपने उम्मीदवारों को जिताने में कामयाबी मिलनी चाहिए। 24 निर्वाचित प्रतिनिधियों में 12 आदिवासी सदस्यों को जिता लेने की रांची के आदिवासियों की कामयाबी का हवाला देते हुए इसी ज्ञापन के पेज नंबर 17 में कहा गया हैः `यह नतीजा बहुत हद तक अपने हालात सुधारने के मकसद से उरांव और मुंडा आदिवासियों के संगठन बन जाने की वजह से है।यह संगठन उन्नति समाज नामक एक सोसाइटी है ,जो कुछ पढ़े लिखे आदिवासियों की पहल पर बना।’ जाहिर है कि उनके बारे में अब कतई यह कहा नहीं जा सकता कि वे संगठित नहीं हो सकते।
गौरतलब है कि रांची और सिंहभूम जिलों में विधान परिषद और स्थानीय निकायों के चुनावों में मतदान केंद्रों तक पहुंचने वाले मतदाताओं का जो औसत रहता है, वह विकसित जिलों में सबसे विकसित विकसित समुदायों के मतदाताओं के औसत की तुलना में कम नहीं है। इसलिए यह कहा नहीं जा सकता कि आदिवासी सामाजिक या राजनैतिक रुप में काफी मजबूती के साथ संगठित नहीं हैं।
आपत्ति की चौथी और आखिरी वजह यह बतायी गयी है कि आदिवासी इलाकों में `अमन चैन और अच्छी सरकार’ बहाल रखने की जरुरत है। अब छोटा नागपुर के आदिवासी शांतिप्रिय और कानून का पालन करने वाले लोग हैं, इस हकीकत के खिलाफ कुछ कहने की गुंजाइश नहीं है। पिछली सदी में जिस तरह की अशांति कई दफा हुई, उसके पर्याप्त कारण रहे हैं।  इसकी वजह आदिवासियों के जन्मजात उपद्रवी होना या उनमें किसी तरह की आपराधिक प्रवृत्तियां नहीं हैं। बल्कि पिछली सदी की अशांति आदिवासियों के जमीन के विरासत के मुताबिक हक हकूक पर अन्यायपूर्ण हमले की प्रतिक्रिया रही है। जिससे अतीत में अदालतों और अफसरों से उन्हें बहुत ही कम राहत मिली है। बहरहाल जैसे ही सर्वे और बंदोबस्त अभियान के तहत उनकी बची हुई जमीन के अधिकार बहाल हो गये, छोटा नागपुर के आदिवासी नस्ल बतौर शांतिपूर्ण तरीके से अपनी आर्थिक, सामाजिक और बौद्धिक स्थिति सुधारने के काम में जुट गये।इस दिशा में अब तक हुई उनकी प्रगति उल्लेखनीय है।
स्वाभाविक तौर पर इसीलिए छोटा नागपुर के आदिवासियों में  बेहतर पढ़े लिखे तबके को उनके इस विचार के लिए दोषी ठहराया नहीं जा सकता कि उनसे अब भी `पिछड़ा’ समुदाय बतौर बर्ताव किया जा रहा है और उनके प्रति गवर्नर की घोषित जिम्मेदारी सिर्फ सेक्शन 52 Cl. (e) के तहत  `अमन चैन की बहाली और अच्छी सरकार’ की है।
इस फार्मूला का असल मतलब यह है कि जिन समुदायों के लिए इस तरह का इंतजाम किया गया है, उसमें ज्यादातर लोग अनियंत्रित जंगली हैं, जो कट्टर तरीके से अशांत हैं और वे जन्मजात समाजविरोधी और कानून तोड़ने की प्रवृत्तियों वाले लोग हैं। इसके मद्देनजर उनका लगातार दमन और उन पर काबू रखने के लिए ऐसे ही इंतजाम की जरुरत है। लगातार होने वाले अन्याय से निराश होकर पिछली सदी में छोटा नागपुर के आदिवासियों में से कुछ दिग्भ्रमित समूहों ने प्रतिक्रिया में बदले और हिंसा की जो भी वारदातें की हैं, वह प्रशासन की तरफ से उनकी शिकायतों और तकलीफों की सुनवाई बहुत कम होने की वजह से हुई हैं। इसके विपरीत इस सदी की शुरुआत से वे लगातार  अमन चैन का रास्ता अख्तियार करते हुए बतौर शांतिप्रिय प्रजा अपने आर्थिक,सामाजिक और बौद्धिक विकास के लिए कोशिशें जारी किये हुए हैं। ये लोग अमन चैन के साथ अपने पड़ोसियों के साथ सद्भाव बनाये रखते हुए कर्तव्यपरायण भाव से प्रशासन से सहयोग कर रहे हैं। हालांकि इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इनमें से अपढ़ अशिक्षित आम लोग कभी कभार जल्दी उत्तेजित हो जाते हैं, लेकिन सरकार के प्रति उनकी वफादारी के खिलाफ कोई सवाल उठाया नहीं जा सकता। इसके साथ ही गौरतलब है कि शिक्षा और सभ्यता के क्षेत्र में उन्होंने तब से लेकर अब तक उल्लेखनीय प्रगति कर ली है।
छोटा नागपुर के आदिवासी अब भी जंगली हैं, इस भ्रम के लिए शायद उनके बारे में अक्सर ढीले ढाले मायने में इस्तेमाल किये जाने वाले आदिम जैसे अनुचित शब्द के सम्मोहक इस्तेमाल बहुत हद तक जिम्मेदार है और इसी विभ्रम की वजह से उन्हें `अमन चैन और सरकार’ के लिए विध्वंसक तत्व मान लिया जाता है।बेशक अमन चैन और सरकार छोटा नागपुर के लिए उतना ही जरुरी है ,जितना कि किसी भी देश के लिए होता है। फिरभी इन दिनों इनकी बहाली के  लिए छोटा नागपुर में किसी खास ऐहतियाती इंतजाम करने की जरुरत नहीं पड़ती है। नस्ली अल्पसंख्यक होने की वजह से ` आदिवासियों के वैध हक हकूक की रक्षा’ के लिए गवर्नर और गवर्नर जनरल के अपनी  जिम्मेदारी निभाने से ही इस मकसद को पूरा किया जा सकता है।
बहरहाल मानीय श्रीमान हुब्बाक ने इस अमन चैन और सरकार के फार्मूले की एक और व्याख्या पेश की है और उनकी दलील है कि अल्पसंख्यक समुदाय के बजाय `आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड इलाके’ के वाशिंदे की हैसियत से आदिवासियों को कहीं ज्यादा फायदा होने वाला है। उन्होंने विधान परिषद में हमें बताया कि अमन चैन और सरकार की बहाली से `आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड इलाके’ की आबादी की बेहतरी के लिए सकारात्मक कदम उठाये जा सकेंगे जबकि `वैध  हकहकूक की रक्षा‘ के तहत अल्पसंख्यकों के ऐसे हितों के उल्लंघन के मामलों को रोकने के लिए नकारात्मक कार्रवाई के बारे में ही सोचा जा सकता है। उनके मुताबिक सिर्फ `आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड इलाके’ में ही आदिवासियों के खास मसलों को सुलझाने पर ध्यान दिया जा सकता है।

VI

तुरंत जो कदम उठाने जरुरी हैं

आदिवासियों की जिन खास  समस्याओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए और उनके जिन वैध हितों की रक्षा की जानी हैं, वे कृषि से संबंधित हक हकूक और स्पेशल टीनेंसी के हक हकूक हैं,जिनकी हिफाजत समुचित सोच विचार के साथ तैयार टीनेंसी कानून के जरिये ही की जा सकती है। दूसरा जो मुद्दा है, वह यह है कि उनके आर्थिक कल्याण के लिए दूसरी तमाम बातों के अलावा सूदखोरी के खिलाफ न्यायसंगत कानून बनाये जाने की जरुरत है और इसके अलावा उनके लोगों को सरकारी सेवाओं में व्यापक रोजगार दिलाने की जरुरत है। तीसरी जरूरी बात यह है कि उनकी शिक्षा और संस्कृति के विकास के लिए सही संस्थाओं की देखभाल और जहां भी जरुरत है, उसके मुताबिक उनके लिए विशेष आर्थिक अनुदान देने की आवश्यकता है। चौथी जरूरी बात यह है कि आदिवासियों में संयम को प्रोत्साहित करने के लिए  सही कदम उठाये जाने चाहिए। जिसके लिए आम तौर पर उनके इलाके में समुचित प्रशासन सुनिश्चित करने के लिए सोच समझकर सावधानी से उनकी भाषा और रीति रिवाजों के जानकार विशेषतौर पर योग्य और संवेदनशील अधिकारियों को आदिवासी इलाकों में नियुक्त किया जाना चाहिए। जैसा कि मैं सोचने की कोशिश कर रहा हूं कि आदिवासियों के इन सारे हितों की रक्षा और प्रोत्साहन गवर्नर नये बिल के क्लाज 12 (I) (c), 52 और 83 (3) के अंतर्गत अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति उनकी विशेष जिम्मेदारियों के तहत उतनी ही सक्षमता के साथ कर सकते हैं जैसे कि `आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड इलाके’ के अंतर्गत विशेष जिम्मेदारियों के तहत। इन हितों की रक्षा के लिए सिर्फ नकारातमक कदम उठाने के बजाय सकारात्मक कदम भी उठाये जा सकते हैं। उनके उत्थान के लिए, उनकी विशेष संस्कृति को  प्रोत्साहन देने के लिए और सार्वजनिक सेवाओं में उनको देय प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए ऐसे सकारात्मक कदम उठाये जा सकते हैं। जिनके बारे में इंस्ट्रुमेंट आफ इंस्ट्रक्शन (और संयुक्त संसदीय कमिटी की रपट के पैरा 321 में खास तौर पर उल्लेख किया गया है।
माननीय श्रीमान हुब्बाक की दलील है कि नये बिल के क्लाज 80 (1) के अंतर्गत गवर्नर को किसी भी ऐसे खाते से खर्च को प्रमाणित करने करने का अधिकार रहेगा, जिस पर विधान परिषद का वोट गवर्नर की विशेष जिम्मेदारियों में से किसी के निस्तारण पर उनके मुताबिक असर पड़ता हो। उनके मुताबिक अगर यह डिवीजन `आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड इलाका’ हो तो इस वजह से इसका लाभ छोटा नागपुर को मिलेगा, ऐसा बिल्कुल साफ है। लेकिन मेरे हिसाब से चूंकि गवर्नर के इस अधिकार का प्रयोग का मौका उनकी खास जिम्मेदारियों के निर्वाह के सिलसिले में मिलेगा, तो जाहिर सी बात है कि वे इस अधिकार का प्रयोग आदिवासियों के हित में उनकी अल्पसंख्यक समुदाय की हैसियत के मुताबिक भी उसी तरह कर सकेंगे,जैसे कि छोटानागपुर डिवीजन के `आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड इलाके’ होने की स्थिति में वे कर सकते हैं।
इन तथ्यों के मद्देनजर `अल्पसंख्यक स्कीम’ के मुकाबले `आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड इलाके’ की स्कीम से कुछ ज्यादा फायदा होने की दलील हमें  समझ में नहीं आ रही है और न ऐसा कहीं प्रकट हो रहा है। बहरहाल किसी भी स्थिति में नये गवर्नमेंट आफ इंडिया बिल के अल्पसंख्यक धारा के तहत आदिवासियों को अल्पसंख्यक हैसियत ,जिसके वे हकदार हैं, के तहत उन्हें मिलने वाले लाभ से वंचित करने के पक्ष में कोई वैध तर्क है ही नहीं। जाहिर है कि अगर छोटा नागपुर के आदिवासियों को अल्पसंख्यक समुदाय की हैसियत दे दी जाती है और `आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड ’ जैसे अपमानजनक नाम से रिहा कर दिया जाता है तो  आगे चलकर ऐसे किसी प्रवाधान का विरोध भी नहीं होगा,जिसके नतीजतन आदिवासियों का आर्थिक और शैक्षणिक उत्थान हो।
गौरतलब है कि माननीय श्रीमान हुब्बाक ने भी अपने भाषण में माना है कि `आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड इलाका’ आदिवासियों की `भावनाओं पर हल्का सा असर डालता है।’ इसलिए इन्हीं तथ्यों के मद्देनजर यही न्यायसंगत और सही होगा कि छोटानागपुर को `आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड इलाका’ कतई नहीं माना जाये। बल्कि `आदिवासी इलाका’ या `एवोरिजिन ट्रैक्ट’ जैसी कोई हैसियत छोटा नागपुर के लिए ज्यादा सही होगा ,जिस पर किसी ऐतराज की गुंजाइश नहीं है। क्योंकि आदिवासी ही अल्पसंख्यक होने के बावजूद इन इलाकों के लिए नीति निर्धारण के सिलसिले में सबसे प्रभावी कारक हैं।
`आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड इलाका’ का प्रावधान अनुगुल की हैसियत सुधारने में निश्चित तौर पर मदद करेगा। संथाल परगना के मामले में नये बिल (शिड्युल VI) के असर में  कमोबेश यथास्थिति बनी रहेगी, हालांकि इस स्थिति में भी विधान परिषद में पूछताछ और चर्चा के अबाध अधिकार  खोना होगा।लेकिन जहां तक छोटा नागपुर का सवाल है,`आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड इलाका’ के प्रावधान में हम प्रगति का कोई तत्व खोज नहीं पा रहे हैं। इसके विपरीत अनेक आदिवासी नेता यह महसूस करते हैं कि इससे प्रगति के बदले प्रतिगमन या पतन की स्थिति पैदा हो जायेगी और उनकी राजनैतिक हैसियत घटेगी। जैसा कि `आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड इलाका’ की श्रेणी से छोटानागपुर को हटाने के लिए मुंडा नेता के प्रस्ताव से जाहिर है और वे भी ऐसा महसूस करते हैं। उनकी शिकायत है कि इस प्रावधान में सबसे खास विशेषताएं बहिस्कार (एक्सक्लुजन) और प्रतिबंध हैं, न कि उनके हक हकूक में कोई बढ़ोतरी। दूसरी तरफ, अल्पसंख्यक प्रावधान की मुख्य विशेषताएं उनके हकहकूक की रक्षा और संरक्षण हैं और इसके साथ ही उनके कल्याण को प्राथमिकता है। आदिवासी नेता भी अपने समुदाय के लिए ऐसा ही चाहते हैं और यही उनकी जरुरतें भी हैं। वे महसूस करते हैं कि `आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड ’ हैसियत से उनके बढ़ते हुए नस्ली आत्मसम्मान को ठेस पहुंचती है, जबकि बिल के अल्पसंख्यक प्रावधान के तहत नये बिल के अंतर्गत `आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड इलाका’ से मिलने वाले सारे संरक्षण बराबर  हासिल हो जाते हैं। इसलिए वे मानते हैं कि अल्पसंख्यक प्रावधान के तहत ही उनके तमाम खास हितों की रक्षा काफी हद तक संभव है। इसके अलावा अल्पसंख्यक प्रावधान से उन्हें उस हीनताबोध से निजात मिल सकेगी जो बहिस्कार (एक्सक्लुजन) के नतीजतन पैदा हो जाना लाजिमी है, हालांकि नये सुधार के मुताबिक यह बहिस्कार आंशिक ही होना है लेकिन इससे पैदा होने वाला हीनताबोध और गहराने वाला है। माइनारिटी स्कीम के तहत उन्हें कुछ सकारात्मक लाभ मिलने की उम्मीदें भी हैं जैसे सार्वजनिक सेवाओं और विधायिका में सही प्रतिनिधित्व, अपनी संस्कृति का विकास और अपने इलाकों के प्रशासन के बारे में संवाद और पूछताछ की स्वतंत्रता के अधिकार। इन सबसे कहीं ज्यादा, जिसकी सबसे ज्यादा जरुरत है, इन इलाकों के प्रशासन लिए विशेष तौर पर सहानुभूतिशील अधिकारियों की नियुक्ति।
जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट,1919 के सेक्शन 52 ए के तहत सिर्फ एक संरक्षणात्मक प्रावधान अब तक ऐसा माना जाता रहा है है, जिससे प्रांत के  दूसरे विकसित डिवीजनों के समकक्ष छोटानागपुर आ जाता है और वह प्रावधान गवर्नर जनरल को छोटानागपुर में किसी विधायी कानून या कानून के किसी हिस्से के अमल पर रोक लगाने का हक मिला हुआ है। जबकि इस मामूली संरक्षणात्मक  प्रावधान  का भी कहीं इस्तेमाल नहीं होता है। सिर्फ बारह साल पहले एक मामूली वाकये में इसका एक दफा इस्तेमाल किया गया। गौरतलब है कि तबसे लेकर अब तक शिक्षा और सभ्यता के विकास में छोटा नागपुर ने बहुत तेज तरक्की कर ली है।
इस प्रकार देखा जा सकता है कि प्रांत में आदिवासियों को अल्पसंख्यक समुदाय की मान्यता दिये जाने के  खिलाफ माननीय श्रीमान हुब्बाक ने अपने ऐतराज की जो वजहें बतायी हैं, वे अब किसी भी रुप में जायज नहीं मानी जा सकतीं।
`आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड इलाका’ के लिए नये बिल के तहत दो मुख्य संरक्षणात्मक उपायों के प्रावधान हैं।जो अपने इलाके में नये कानून को लागू करने के मामले में गवर्नर के  वीटो करने या सुधार करने के अधिकार हैं और इसके साथ ही उनके रेगुलेशन के मुताबिक राजकाज हैं। जबकि माइनारिटी स्कीम के तहत इन प्रावधानों के मुकाबले सेक्शन 90 के तहत गवर्नर को किसी बिल को अपनी सम्मति  देने से इंकार करने या रिमांड पर भेजने के अधिकार दिये गये हैं, जिसके तहत गवर्नर को अपनी विशेष जिम्मेदारियों के निर्वाह के सिलसिले में अल्पसंख्यकों के वैध हितों की रक्षा के  लिए `गवर्नर का कानून’ लागू करने का भी अधिकार दे दिया गया है। सेक्शन 44 के तहत गवर्नर जनरल को भी यही अधिकार दे दिया गया है।
इन परिस्थितियों में यह साफ हो जाना चाहिए कि छोटा नागपुर के आदिवासियों के लिए `अल्पसंख्यकों के लिए योजना’(माइनारिटी स्कीम) में संतुलन के हिसाब से ज्यादा लाभ की स्थिति है। यह लाभजनक स्थिति आगे फिर विधायिकाओं में ज्यादा और सही प्रतिनिधित्व दिये जाने और आदिवासियों के सांस्कृतिक और आर्थिक हितों को प्रोत्साहित करने पर और मजबूत हो सकती है। ऐसे कदम सही और जरूरी समझे जाने चाहिए।
आदिवासियों का प्रतिनिधित्व  प्रांतीय विधायिकाओं में सही तरीके से बढ़ाने और संघीय असेंबली में कुछ प्रतिनिधित्व दिये जाने पर दिये जाने पर इसे अतिरिक्त संरक्षणात्मक उपाय माना जा सकता है,जिससे आदिवासियों के वैध हितों पर  आवश्यक विवेचना हो सकती है और उनकी रक्षा भी की जा सकती है। आदिवासियों के साथ हमारी तमाम पेशागत सहानुभूति के बावजूद बेहद शर्मिंदगी के साथ हमें इसे मानना होगा कि  जब कभी हितों के टकराव की स्थिति पैदा हो जाती है, तब आदिवासियों को देशवासियों की सहानुभूति बहुत कम मिल पाती है। उन्हें अपनी ही ताकत और सरकारी सक्रिय सहानुभूति और मदद पर जीना होता है।

VII

जो पिछड़े थे, वे अब पिछड़े कतई नहीं रहे

जैसा कि हमने देख लिया है कि छोटा नागपुर के आदिवासियों ने  पिछले तीस साल और उससे कुछ ज्यादा अवधि में शिक्षा में अपना पिछड़ापन काफी हद तक दूर कर लिया है। साधनों और मौकों की इजाजत मिलने के हिसाब से वे तेज तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं। अब वास्तव में उन्हें और ज्यादा मौका दिये जाने की आपातकालीन जरुरत है।
छोटा नागपुर को अनुगुल की श्रेणी में रखने का मतलब यह है कि आप छोटा नागपुर के लिए घड़ी की सुई को पीछे की तरफ धकेल रहे हैं और उसे लगभग एक सदी पीछे के जमाने में साउथ वेस्टर्न फ्रंटियर एजंसी के कार्यकाल की तरफ ले जा रहे हैं,जो 1854 में समाप्त हो गया था। हकीकत यह जरूर  है कि वक्त से पहले 1854 में संरक्षणात्मक इंतजामात खत्म कर दिये जाने की वजह से आदिवासियों को अपनी  विरासत के मुताबिक मिले जमीनी हक हकूक आहिस्ते आहिस्ते खत्म होते चले गये और इसके नतीजतन बार बार पूरी सदी के ज्यादातर हिस्से के दरम्यान आदिवासी विद्रोह की घटनाएं होती रहीं। एक विद्रोह थमा तो दूसरा विद्रोह शुरु हो गया। आफ एंड आन। यह सिलसिला तभी थमा, जब बहुत देरी से 1902 में सर्वे और बंदोबस्त के आपरेशन अादिवासियों के प्रति अपनी सहानुभूति के लिए मशहूर अधिकारियों जैसे श्री (अब हिज एक्सीलेंसी  सर जेम्स) सिफ्टन, सर्वश्री लिस्टर, रीड, ब्रिज और गोखले और श्री (अब सर स्टुआर्ट) मैकफर्सन के दिशानिर्देशों के मुताबिक शुरु हो गये। इससे विरासत के मुताबिक हक हकूक की हिफाजत तय हो जाने के नतीजतन,जो अब तक बहाल हैं, आदिवासियों को शांत किया जा सका। तभी से आदिवासी अपने बदले हुए आर्थिक, प्रशासनिक और राजनीतिक हालात के मुताबिक खुद को तैयार करने में लगे हैं। तभी से उन्होंने अपनी सारी ऊर्जा पूरे दिल के साथ अपने बौद्धिक, सामाजिक और आर्थिक उत्थान में लगा दी है। तब से लेकर अब तक जो तरक्की उन्होंने कर ली है,वह बेशक अभूतपूर्व है। अब ऐसे में दिन के अंत में आखिरकार उनकी उपलब्धियों के भुगतान बतौर `संरक्षण के पुराने एरिअर (प्रोटेक्शनंस ओल्ड एरिअर)’ चुकाने के मकसद से एक सदी पीछे लौटकर नार्थ वेस्टर्न फ्रंटिअर एजंसी के जमाने के बेकार और गलत संरक्षण के प्रावधान करना जहां तक छोटा नागपुर का ताल्लुक है, कुछ ज्यादा संरक्षण (ओवर प्रोटेक्शन) जैसा लगेगा,जो कि साफ तौर पर संवैधानिक कालभ्रम (एलक्रोनिज्म) होगा।
मौजूदा संविधान के मुताबिक विधायिका के सारे आम कानून वास्तव अर्थों में छोटा नागपुर में भी लागू होते हैं बशर्ते कि गवर्नर अपने विवेक के मुताबिक किसी पूरे कानून या उसके किसी हिस्से के छोटा नागपुर में अमल पर वीटो का प्रयोग न करें या उसे सुधार के साथ लागू करने का फैसला न करें। दूसरी तरफ, नये प्रस्तावों (सेक्शन 92 (I)) के तहत विधायिका का कोई कानून तब तक लागू नहीं होगा जब तक गवर्नर इसे लागू करने के लिए सार्वजनिक अधिसूचना जारी करके निर्देश न दें।आगे इस तथ्य पर भी गौर करें कि सेक्शन 92 (2) के तहत गवर्नर को अधिकार है कि अगर वे इसका फैसला कर लें तो वे विधायिका के किसी कानून को वापस ले सकते हैं और छोटा नागपुर के लिए अपनी तरफ से कोई रेगुलेशन बनाकर उसे लागू कर सकते हैं। इसके अलावा सेक्शन 84 (d) (i) के तहत वे ऐसा कदम उठाये जाने के औचित्य पर विधान परिषद में सवाल उठाने और बहस की इजाजत देने से भी इंकार कर सकते हैं। इन तथ्यों के मद्देनजर कुछ लोगों को डरावना ख्वाब आने लगा है कि इन प्रावधानों से, जैसा कि उनका आशय है, प्रशासन रेगुलेशन के तहत चलाये जाने के खतरे को खारिज नहीं किया जा सकता। अगर कोई उन्हें यह समझाने की कोशिश करता है कि उनकी यह  बेतरतीब आशंका निराधार है और ऐसा कोई गतिरोध असंभव है तो इस पर उनका कहना है कि हालांकि हिज एक्सीलेंसी सर जेम्स सिफ्टन जैसे बुद्धिमान और सहानुभूतिशील गवर्नर या माननीय श्रीमान हुब्बाक या माननीय श्रीमान हैलेट जैसे गवर्नर जो आदिवासियों को अच्छी तरह जानते हैं और उनके प्रति सहानुभूतिशील हैं, वे ऐसे किसी प्रशासनिक कालभ्रम ( एनक्रोनिज्म) के बारे में कभी सोच नहीं सकते और आम तौर पर किसी गवर्नर के ऐसे अधिकार के प्रयोग करने की कोई संभावना नहीं है, फिरभी कानून की किताब में ऐसे प्रावधान होने से मौजूदा तथ्य बदल नहीं जाते, न ही उनके दिमाग में गहरे पैठा यह डर खत्म हो जाता है। इसका सीधा मतलब हर कीमत पर छोटा नागपुर की संवैधानिक हैसियत का घट जाना है। इसका नतीजा कुल मिलाकर एक दुधारी तलवार पर चलने जैसे हालात का निर्माण हो जाना है।
जब इस सिलसिले में श्वेत पत्र प्रकाशित हुआ, तभी आदिवासियों और उनके मित्रों का ध्यान खास तौर पर उसके क्लाज 100 में निहित दुःखद अन्याय की तरफ गया, जिसके तहत `आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड एरिया’ अथवा `पूरी तरह अलहदा,होली एक्सक्लुडेड एरिया’ के प्रशासन के मामले में गवर्नर को  विधान परिषद के किसी प्रस्ताव या सवाल को खारिज करने का अधिकार दे दिया गया है। यह ऐसे वक्त हुआ जबकि वे और मैं भी सोच रहे थे कि क्लाज 108 के तहत जो संरक्षणात्मक प्रावधान किये गये हैं, वे व्यवहार में मौजूदा संरक्षणात्मक प्रावधानों की तरह ही हैं,जो बेहतर बंदोबस्त के लिहाज से शायद  कुछ और वक्त के लिए मददगार साबित हों।बशर्ते कि श्वेत पत्र की सिफारिशों की तुलना में विधायिकाओं में आदिवासियों को बेहतर प्रतिनिधित्व दिया जाये।
ज्वाइंट सिलेक्ट कमिटी की रपट प्रकाशित होने के बाद प्रावधानों की ज्यादा सावधानी के साथ पड़ताल की गयी तो पता चला कि `आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड एरिया’ के तहत तमाम प्रतिबंध मौजूदा प्रतिबंधों से भी ज्यादा सख्त और ज्यादा अपमानजनक हैं। अनेक आदिवासी नेता इस तथ्य से खुद को और अपमानित और हताश महसूस करने लगे कि `दलित वर्ग’  और मजदूरों के अधिकार भी बढ़ा दिये गये जबकि इसके उलट उनके अधिकारों  पर प्रतिबंध लगा दिये गये। यही नहीं, प्रांतीय विधायिका में ज्यादा प्रतिनिधित्व और संघीय विधायिका में कुछ प्रतिनिधित्व की आदिवासियों की मांग भी ठुकरा दी गयी। गौरतलब है कि हमने प्रांतीय परिषद में इसके लिए जोरदार तरीके से मांग उठायी थी और इसे लेकर प्रतिनिधिमंडल ने माननीय गवर्नर, माननीय गवर्नर जनरल ,राज्य सचिव और प्रधानमंत्री से मुलाकात भी की थी। मौजूदा बिल `आंशिक अलहदा, पार्शियली एक्सक्लुडेड एरिया’ के मामले में ज्वाइंट सिलेक्ट कमिटी की रपट से भी खराब है।जो पीछे की ओर ले जाता है।

VIII

आदिवासियों की राजनैतिक हैसियत

बिहार और ओड़ीशा विधान परिषद की पिछले पंद्रह साल की कार्यवाही में देखा जा सकता है कि मैं हमेशा आदिवासियों की राजनैतिक प्रगति के मामलों में बेहद सतर्क और अनुदार रहा हूं। मैंने हमेशा इस सिलिसिले में सतही जल्दबाजी का विरोध किया है और उनकी राजनैतिक प्रगति के लिए वक्त के सही चुनाव और कदमों के बारे में सलाह दी है। मैं आगे भी यह सिलसिला जारी रखनेवाला हूं क्योंकि पिछले तीस सालों से या उससे भी ज्यादा वक्त से मेरी सोच और मेरे दिल में आदिवासियों के कल्याण के सरोकार सर्वोच्च प्राथमिकता के रहे हैं। लेकिन पूरी जिम्मेदारी और गहरी चिंता के साथ `बैकवर्ड ट्रैक्ट’ सिस्टम और इसे संवैधानिक तौर पर आंशिक अलहदा, पार्शियल एक्सक्लुजन के साथ नत्थी करने के प्रस्ताव के फायदे  और नुकसान को उनकी प्रस्तावित राजनैतिक हैसियत के मद्देनजर नस्ली दिमाग पर होने वाले असर को ध्यान में रखते हुए विचार करने पर मैं इस नतीजे पर पहुंचने के लिए मजबूर हो गया हूं कि नये संविधान के तहत  छोटानागपुर के आदिवासियों के प्रति आचरण के तीनों तरह के इंतजाम, (1) उन्हें कि विशेष योग्यता के बिना आम संविधान के राज में डालना,(2) सुधारों के तहत उन्हें संथाल परगना और अनुगुल की तरह `आंशिक अलहदा,पार्शियली एक्सक्लुडेड  इलाका’ के अंतर्गत रखना (3) उन्हें महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक की मान्यता  पर विचार के बाद यही सही लगता है और इसीकी अपेक्षा की जाती है कि मौजूदा चरण में उन्हें महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक समुदाय मान लिया जाये। अतिरिक्त जो भी संरक्षणात्मक प्रावधान जरुरी हों, और असाधारण व आकस्मिक परिस्थितियों के मद्देनजर वे अनिवार्य भी हों, तो भी मेरे विनम्र विचार के मुताबिक उनकी सामान्य राजनीतिक हैसियत एक ऐसे महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक समुदाय की होनी चाहिए, जिसके संरक्षण और उत्थान के लिए सरकार की विशेष जिम्मेदारी हो। बहरहाल जब तक उनकी सरकार के मुखिया बतौर सहानुभूतिशील और उनके बारे में घनिष्ठ जानकारी रखने वाले अधिकारी हिज एक्सीलेंसी सर जेम्स सिफ्टन, या माननीय श्रीमान हुब्बाक या श्रीमान हैलेट जैसे लोग हों, उनके वैध हितों के खतरे में पड़ने या नजरअंदाज हो जाने को कोई आशंका नहीं है। लेकिन प्रशासन का वह तानाबाना जो शायद अनुगुल के खोंड या राजमहल के पहाड़ों में बसने वाले सौरिया  पहाड़िया (मलेर) या दामिन ई कोह के लिए सही है, वह छोटा नागपुर के मुंडा,उरांव और खड़िया, भूमिज, हो और संताल आदिवासियों की मौजूदा शैक्षणिक प्रगति के मद्देनजर सही नहीं होगा। हालिया तरक्की के मद्देनजर उनके बढ़ते कद के मुताबिक उनके लिए संविधान का दायरा बढ़ाने के बजाये उन्हें नये गवर्नमेंट आफ इंडिया बिल के सेक्शन 91,91 और 94 के तहत आंशिक `अलहदगी, पार्शियल एक्सक्लुजन’ में कैद कर देने से उनकी हैसियत कहीं ज्यादा पालतू, जख्मी और संकुचित हो जायेगी।
क्योंकि छोटा नागपुर अब `झूठी नींद’ में नहीं है और `वह रोशनी के बिना जी रहा सुस्त ठहराव का भूगोल नहीं है या आंदोलन की शक्ति भी नहीं है।’



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