Monday, October 14, 2019

अब मास्साब के मिशन को पूरा करने की जिम्मेदारी।यह पुलिनबाबू का मिशन भी है।हमारे पुरखों का मिशन


अपनी बात
अब मास्साब के मिशन को पूरा करने की जिम्मेदारी।यह पुलिनबाबू का मिशन भी है।हमारे पुरखों का मिशन।
पलाश विश्वास
प्रेरणा-अंशु के मास्साब की स्मृति पर केन्द्रित मई अंक आपके हाथों में पहुंच गया होगा।इस पर आपकी प्रतिक्रिया का इन्तजार है।मास्साब के आदर्शों के मुताबिक हम गांव,किसान और कृषि पर राष्ट्रव्यापी संवाद चलाना चाहते हैं।

यही प्रेरणा -अंशु का मिशन है।समाजोत्थान की दिशा भी यही है।यह मेरे दिवंगत पिता पुलिनबाबू का मिशन भी है।हमारे पुरखों का मिशन,जो अभी अधूरा है।

 हम इस राष्ट्रव्यापी संवाद  में छात्रों युवाओं की व्यापक पैमाने पर भागेदारी की उम्मीद करते हैं और आपसे सहयोग की अपेक्षा।

मास्साब को श्रद्धांजलि की रस्म अदायगी का कोई मतलब नहीं है अगर हम उनका मिशन आगे बढ़ाने में नाकाम हो जाते हैं।

मास्साब ने 18 मार्च,2018 के कैंसर से लड़ते हुए दम तोड़ने से पहले तक किसानों,कामगारों और वंचितों के हकहकूक के लिए जनान्दोलनों का नेतृत्व करते रहे।

संजोग की बात यह है 12 जून 2001 में ही उत्तराखंड के शरणार्थी  किसान नेता पुलिन बाबू ने भी रीढ़ के कैंसर से लड़ते हुए आखिरी सांस लेने तक मेहनतकश जनता के लिए देशभर में दौड़ते रहे, जनांदोलनों का नेतृ्त्व करते रहे। 

यह तराई में बसे लघु भारत की साझा विरासत है,जिसमें मास्साब,पुलिनबाबू और हमारे पुरखों की गौरवशाली भूमिका है।

तराई के इन दोनों समर्पित सामाजिक कार्यकर्ताओं की आजीवन सक्रियता से तराई में आम लोगों के हकहकूक की निरन्तरता बनी रही है और इस परम्परा को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी हमारी है।

मास्टर प्रताप  सिंह, समाज और आम जनता के मास्साब   बुनियादी तौर पर एक बेहतरीन लेखक सम्पादक थे और और प्रखर वैज्ञानिक दृष्टि के साथ अपने आदर्शों और संघर्षों का ब्यौरा वे लिपिबद्ध करके गये हैं।

यहीं नहीं,भारतीय कृषि,किसानों और कामगारों के हक में वैकल्पिक प्रकृति बांधव विकास के विकल्प की रुपरेखा भी मास्साब तैयार करके गये हैं।गांव,कृषि और किसान कामगार के हित सुनिश्चित करने के अपने इस मिशन को पूरा करने का उनका एक समयबद्ध कार्यक्रम भी रहा है।

मास्साब के साथियों, समर्थकों के अलावा सभी जनप्रतिबद्ध लोगों के सामने इस कार्यक्रम को लागू करने की चुनौती है।

इसके विपरीत पुलिनबाबू कोई लेखक नहीं थेे।वे औपचारिक शिक्षा के मुताबिक शायद अपढ़ थे।जबकि वे कई भाषाओं में नियमित पढ़ते लिखते थे।सामाजिक कामकाज के अलावा बाकी समय उनके लिे पढ़ने लिखने का होता था।मुझे भी पढ़ने लिखने का नशा बचपन में हर कहीं उनके साथ आते जाते और रहने के कारण लग गया। वे रोजाना तराई और बाकी देश की मेहनतकश जनता के हक में लिखा पढ़ी करते रहे हैं और रोजाना रोजनामचा भी मास्साब की तरह लिखते रहे हैं।

यह मेरा अपराध है कि उनका लिखा हम मास्साब के परिवार की तरह सहेज नहीं सके।तराई और देश भर में हमारे अपने लोगों की आबादी में मेरी पहचान उनकी वजह से है।फिरभी हम वह नहीं कर सके जो मास्साब के चार बेटों,बहुओं और उनकी पत्नी ने कर दिखाया है।ऐसा मेरी जानकारी में किसी ने शायद ही किया होगा।
अब यह परिवार मेरा परिवार है।पुलिनबाबू का अपना परिवार है।

यह भी मेरा अपराध है कि मैं जनसंघर्षोे में मास्साब,पुलिनबाबू और तराई समेत उत्तराखंड की जनता के मोर्चे पर खड़ा होने की अपनी जिम्मेदारी निभा नहीं सका।इस मामले में तराई और पहाड़ के सारे युवा साथी हमसे बेहतर हैं। हर गांव के लोगों को मुझसे शिकायत है कि मैं भाग क्यों गया।यह मेरे अपने लोगों का प्यार है और मेरा अक्षम्य अपराध।आप मुझे सजा दें।माफी नहीं चाहिए।

बेहतर सजा यही है कि गांव,कृषि और किसानों के इस मिशन को पूरा करने में मैं अपना सबकुछ समर्पित कर दूं।इस सजा को अंजाम  देने के लिए दिनेशपुर को एक खुला जेल बनाकर आप पहरेदार बन सकते हैं।

मास्साब ने समाजोत्थान और प्रेरणा अंशु के रुप में जो सामाजिक संस्थाओं का निर्माण किया है,उसकी भूमिका भी उनकी विरासत को बचाने में निर्णायक रही है।

मास्साब से पहले तराई में ऐसी रचनात्मक संस्थागत सामाजिक सक्रियता हुई नहीं है।

इसलिए हम सिर्फ पुलिनबाबू ही नहीं,तराई  के नवनिर्माण में जिनकी भी भूमिका रही हैं,चाहे वह जगन्नाथ मिश्र हों,सरदार भगत सिंह हों,चौधरी नेपाल सिंह हों, बाबा गणेशा सिंह हों  या फिर तराई को बसाने में और तराई और पहाड़ के जनमानस की एकात्मता,बहुलता और विविधता के लोकतंत्र में गांव गांव के अनेक महत्वपूर्ण पुरखों की कोई स्मृति हम सहेज नहीं सके हैं।

हमें इसका कोई अंदाजा नहीं है कि हमारे पुरखों ने घने जंगल में महामारियों से लड़ते हुए बिना संसाधन,बिना बुनियादी ढांचा, बिना बुनिादी सेवाओं के कितनी मुश्किलों के साथ और कैसे तराई को बसाया है और हमें इसकी कोई परवाह भी नहीं है। 

जिन हालात में हमारी परवरिश हुई,अब हालात बदलने के बाद हम भूल गये हैं।पक्के मकानों के वाशिंदों को माटी कीचड़ में लथपथ अपने पुरखों की घास फूस की झोपड़ियों और साझे चूल्हों की कोई याद नहीं है।

जाहिर है,तराई में धर्मस्थल तो गांव गांव में भव्य बन गये हैं लेकिन अपनी विरासत,अपना इतिहास सहेजने और पुरखों का सपना पूरा करने के लिए सामाजिक संस्थाएं नहीं बन सकी हैं।

यह विडंबना ही है कि चित्तरंजन राहा के नाम एक इन्टर कालेज है और पुलिनबाबू के नाम एक अस्पताल।हमने पुलिन बाबू की एक मूर्ति भी लगा दी है।लेकिन उनके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते और न जानने की कोशिश करते हैं।जानते नहीं तो यह विरासत हम नई पीढ़ी के साथ साझा भी नहीं कर सकते।

विडम्बना है कि पुलिनबाबू  की मूर्ति पर फूल चढ़ाने वाला कोई नहीं होता।न उनके नाम से जुड़े अस्पताल में चिकित्सा की कोई व्यवस्था है।हम रंगरोगन से सिर्फ अपना अपना चेहरा चमका रहे हैं और जहां तहां अपने नाम का बोर्ड लगा रहे हैं।भइये,इस तरह चेहरा चमकता नहीं है।

दूसरे लोगों के लिए तो हमने  एक रास्ते तक का नामकरण नहीं किया है।लाखों का खर्च करके लोग अपनी छवि निखारने की कोशिश कर रहे हैं इन दिनों और उन्हें परवाह नहीं है कि छवि विज्ञापनों से नहीं,संस्थाओं के जरिये रचनात्मक सामाजिक सक्रियता से बनती है।

रचनात्मक सक्रियता का मास्साब इसके सच्चे उदाहरण हैं।

पुलिनबाबू,राधाकांत बाबू, हरिपद मास्टर, सुरेन बाबू,षड़ानन बाबू,अधर बाबू जैसे शरणार्थियों के नेताओं के बारे में अगर नई पीढ़ी को कुछ भी नहीं मालूम है और अपने गांवों को बसाने वाले पुरखों को वे याद नहीं करते तो यह हमारा समाजिक अपराध है।

अब भी जो लोग तराई बसाने वालों की उस पुरानी पीढ़ी के बचे हुए हैं,उनकी मदद से उस विरासत को सहेजने की जिम्मेदारी हमारी है।हम ऐसा नहीं करते तो हमारा कोई इतिहास भूगोल बचेगा नहीं। यह अहसास होना मिशन के लिए अनिवार्य है।

पुलिनबाबू के लिखे सारे दस्तावेज,उनकी डायरियां घुन लगने से नष्ट हो गये क्योंकि मैं पिछले चालीस साल से तराई से बाहर रहा हूं और पिताजी तजिंदगी घास फूस की झोपड़ियों में रहे हैं। अब हमने पक्के मकान बना लिये हैं लेकिन उन मकानों में हमारी स्मृतियों का कोई धरोहर नहीं है।पिता के चरण चिन्ह नहीं हैं।

तराई में गांव गांव में पक्के मकान खूब बने हैं और लोगों के पास पैसा भी खूब है।फिर भी सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत को सहेजने का कोई प्रयास नहीं है।

हमें उम्मीद है कि प्रेरणा अंशु और समाजोत्थान मिशन से जुड़े लोग यह सूरत बदलने के लिए अपनी पूरी ऊर्जा और रचनात्मकता लगा देंगे। उनकी क्षमता ही हमारी पूंजी है।

हमें छात्रों और युवाओं के ज्ञान विज्ञान की सभी विधाओं और सभी विषयों में शिक्षित करने के प्रयास करने होंगे।उनकी रचनात्मकता के सारे माध्यम मजबूत करने होंगे और उनके भविष्य के निर्माण और उनके सम्मानजनक सामाजिक उत्थान और रोजगार के रास्ते भी बनाने होंगे।

यही मास्साब और पुलिनबाबू के मिशन का मतलब है।

टीन के ट्रंक और खुले में आंधी पानी में चूंते हुए सीलनभरे घर में हम उनका लिखा कुछ भी सहेज नहीं सकें और न ही कोई संस्था ऐसी रही है,जहां तराई के गौरवशाली सामुदायिक जीवन के दस्तावेज रखे जाते।जितनी जल्दी हो, इस कमी को दूर करने की पहल की जानी चाहिेए।

मास्साब की बनायी संस्था ही अब मेरी शरणस्थली है।जीते जी मरे हुओं के लिए संजीवनी है।

जाहिर है कि मास्साब की बनायी संस्थाओं को और मजबूत करके इन्हीं के जरिये हम इस  अधूरे काम को अंजाम दे सकते हैं और इसके लिए छात्रों और युवाओं से लगातार संवाद करने की जरुरत होगी,जैसा प्रयास प्रेरणा अंशु की तरफ से लगातार किया जा रहा है।

अगर हम प्रतिबद्ध है तो सामाजिक नेटवर्किंग और जन सहयोग से जिस तरह मास्साब ने समाजोत्थान और प्रेरणा अंशु को आगे बढ़ाया है,उसी तरह तराई और पहाड़ में भी,हम विविधता और बहुलता की इस साझा विरासत की निरंतरता बनाने के लिए सामाजिक सहयोग और नेटवर्किंग के मास्साब के दिखाये रास्ते पर ही जरुरी संसाधन जुटा सकते हैं और हमें पूरी उम्मीद है कि देश के बाकी हिस्सों से भी जो हमारे मित्र और साथी हैं,उनका भी सहयोग हमें मिलेगा।उन्हें भी इस मिशन से जोड़ना है।

1952 तक तब नैनीताल जिले की तराई का पूरा इलाका घनघोर जंगल था और अंग्रेजी हुकूमत के भूमि बन्दोबस्त के तहत यह पूरा इलाका खाम सुपरिंटेंडेंट के आधीन था,जिन्होंने इस इलाके की ज्यादातर  बेशकीमती जमीन देश के प्रभावशाली तबकों पूंजीपति घरानों, सिने कलाकारों, आईपीएस आईएएस अफसरों, राजनेताओं को कौड़ियों के मोल अलाट कर दी।

हजारों एकड़ के नामी बेनामी रकबों वाले उनके बड़े फार्मों के लिए मजदूरों की जरुरत थी और तराई के घने जंगल को साफ करने के लिए मजदूरों की जरुरत थी।

ब्रिटिश भारत में  संयुक्त प्रान्त के प्रधानमन्त्री और आजाद भारत में बाहैसियत यूपी के मुख्यमन्त्री और भारत के गृहमन्त्री पंडित गोविन्द बल्लभ पंत ने पहाड़ के लोगों को तराई में बसाने की पहल की,लेकिन इस बीहड़ जंगल में पहाड़ से आकर बसने के लिए लोग तैयार नहीं थे।

इस पर नेहरु और पंत ने भारत विभाजन के शिकार पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली और पश्चिम पाकिस्तान के पंजाबी और सिख शरणार्थियों को तराई में बसाने की योजना लागू की। 

1950 तक खाम सुपरिंटेंडेंट के जमाने से तराई में विभाजनपीड़ित बंगाली और पंजाबी शरणार्थियों के गांव बसने लगे।

इन्हीं शरणार्थियों ने तराई को आबाद किया,जहां घने जंगल के बीच झूम खेती करने वाले थारु और बुक्सा आदिवासियों के गांव भी थे,जिन्हें पहले बड़े फार्मों के लिए,फिर पुनर्वास योजना लागू करने के लिए बड़ी निर्ममता से उजाड़ दिया गया।

तभी से तराई में किसानों और कामगारों की बेदखली का सिलिसला जारी है तो किसानों और कामगारों के हकहकूक के लिए आंदोलन और प्रतिरोध का सिलसिला जारी है।

1956 में तराई में बंगाली शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए पहला बड़ा आन्दोलन हुआ।दिनेशपुर से बंगाली शरणार्थी बाल बच्चों, महिलाओं और बूढ़ों के साथ जुलूस निकालकर रुद्रपुर पहुंचे और वहां धरना प्रदर्शन किया। जैसा कि इन शरणार्थियों ने उत्तराखंड की पहली भाजपा सरकार बनने के बाद उन्हें भारतीय नागरिक न मानने के खिलाफ 2001 में किया था।यह समझना होगा कि 2001 की तराई और 1956 की तराई में बहुत बड़ा फर्क था।

1956 का यह आंदोलन तराई बंगाली उद्वास्तु समिति की ओर से किया गया।इस समिति के अध्यक्ष गांव सुंदरपुर के राधाकांत मंडल थे और महासचिव पुलिनबाबू थे,जिनका गांव बसंतीपुर तब तक बसा नहीं था।

1956 के आंदोलन के बाद ही गांव बसंतीपुर,पंचाननपुर और उदयनगर बसाये गये।

 दिनेशपुर इलाके के बाकी गांव 1950 से ही बसने लगे थे।

इस आंदोलन में लक्ष्मीकान्त पुर के हरिपद विश्वास,राधाकांतपुर के अधर वैद्य, मकरन्दपुर के हरेन सरकार, चंदायन के सुरेनबाबू, दिनेशपुर के वीरेन राय और सुखलाल मंडल,पंचानन पुर के कुमुद सरकार, मोहनपुर के विनोद सिकदार,खानपुर के षड़ानन सिकदार,दिनेशपुर की फूलझड़ी मंडल,चंदननगर के दयालबाबू और हरेन राय,अमृतनगर के रेबा विश्वास के पिता,प्रफुल्लनगर के काली जोआरदार,हरिदासपुर के प्रफुल्ल मिस्त्री,बसंतीपुर के मांदार मंडल,अतुल शील और शिशुवर मंडल,उदयनगर के प्रफुल्ल साहा, कालीनगर के कालीपद मंडल,पिपुलिया के भोलानाथ और वासुदेव,चित्तरंजनपुर के वृहस्पति बैरागी और निरंजन मंडल, विजय नगर के गोवर्धन राय,जगदीशपुर के हाजरापद मंडल,आनंदखेड़ा के हरिमोहन हालदार और निरोद विश्वास (रेड रोज स्कूल के हरिपद विश्वास के पिता),शिवपुर के मेघनाथ राय, दुर्गापुर के बिरंची बाबू जैसे असंख्य लोगों की बड़ी भूमिका रही है। इस सूची में दूसरे अनेक नाम छूट गये होंगे,जिन्हें मैं भी भूल गया हूं।उन सभी लोगों के बिना तराई का बसना असम्भव था।

उस आंदोलन के गवाह अब बिरंचीबाबू,रोहिताश्व मल्लिक, सुधारंजन राहा, कार्तिक साना, विधू अधिकारी जैसे गिने चुने लोग हैं और तराई की नई पीढ़ी के लोग पुलिनबाबू के अलावा बाकी किसी का नाम भी नहीं जानते बल्कि पुलिनबाबू को भी नहीं जानते।

रुद्रपुर में आंदोलन कर रहे शरणार्थियों को महिलाओं,बच्चों,बूढ़ों समेत किलाखेड़ा के घने जंगल में पलिस और पीएसी वालों ने फेंक दिया।जहां से जंगल में भटकते हुे खूखार जानवरों से बचते हुए वे पैदल साथ साथ अपने गांव लौटे थे। फिरभी पुलिनबाबू और उनके साथी मोर्चे पर डटे हुए थे। हारकर यूपी सरकार को शरणार्थियों की सारी मांगें माननी पड़ी।

1956 के उस आन्तीदोलन की वजह से, न कि किसी की अनुकम्नपा या कृपा से ये गांव बसंतीपुर,पंचाननपुर और उदयनगर बसाये गये।सड़के बनीं।स्कूल खुले।अस्पताल बना।आईटीआई खुला।पूरी जनता के प्राण एक साथ बन्धे होने का नतीजा दिनेशपुर है।दिनेशपुर का कायाकल्प हो चुका है।वह बन्धन भी टूट गया है।लेकिन दिनेशपुर का कोई प्राण नहीं है।दिनेशपुर में प्राण फूकने के लिए फिर वहीं प्रेमबन्धन चाहिए।

बहरहाल,आज के विकसित दिनेशपुर का बुनियादी ढांचा 1956 के उसी आन्दोलन की वजह से तैयार हुआ।उन आन्दोलनकारी पुरखों की स्मृतियां सहेजने की जिम्मेदारी अब हमारी है।

1956 के बाद पूरे देश में तेलंगना किसान विद्रोह के बाद किसानों और कामगारों के हकहकूक का आंदोलन लालकुआं और गूलरभोज के मध्य ढिमरी ब्लाक में 1958 में किसान सभा के नेेतृत्व में हुआ।इस आंदोलन के नेता थे नैनीताल के कामरेड हरीश ढौंडियाल,एडवोकेट,कामरेड सत्येन्द्र.चौधरी नेपाल सिंह,बाबा गणेशासिंह और पुलिनबाबू थे।

बागी किसानों ने तराई के भूमिहीन किसानों के चालीस गांव बसा लिये थे।हर गांव में चालीस परिवार को दस-दस एकड़ जमीन बांटी गयी थी।खेती बाड़ी शुरु हो चुकी थी।

तब यूपी के गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह थे।उन्होंने थर्ड जाट रेजीमेंट और बरेली, रामपुर,नैनीताल,पीलीभीत और मुरादाबाद पुलिस और पीएसी के जरिये इन गांवों को रातोंरात जला दिया और हजारों किसानों की गिरफ्तारी की।भारी लूटपाट हुई।
हाथ पांव तोड़ दिये गये।

पुलिनबाबू का हाथ रूद्रपुर थाने में तोड़ दिया गया।

विडंबना यह है कि कामरेड पीसी जोशी तब कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव थे और पार्टी ने तेलगंना किसान विद्रोह की तरह ढिमरी ब्लाक किसान आंदोलन से पल्ला झाड़ लिया।

अर्जुनपुर के बाब गणेशा सिंह की जेल में सड़ते हुए मृत्यु हो गयी।पुलिनबाबू और उनके साथियों पर 1967 तक संविद सरकार द्वारा मुकदमा वापस लेने तक मुकदमा चलता रहा।

हमारे घर दो दो बार कुर्की जब्ती हो गयी।उसी दौर में तराई के आन्दोलनों के सारे दस्तावेज नष्ट कर दिये गये।

इसी मुकदमे की सुनवाई के दौरान मैं पिता के साथ 1963 में नैनीताल कचहरी में मौजूद था और तभी नैनीताल पहलीबार गया।उस सुनवाई में आन्दोलनकारियों को जेल हो गयी थी लेकिन तुरन्त उनके साथियों ने उनकी जमानत करवा ली थी।

हम लोग इस आन्दोलन का इतिहास अब तक नहीं लिख पाये, जिससे वाम नेतृत्व के विश्वासघात की वजह से यूपी, पंजाब, बिहार और राजस्थान में पलाशी के युद्ध के बाद से लगातार जारी किसान आंदोलनों का भूगोल पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक सिमट गया और तभी से हिन्दी जनपदों में कम्युनिस्टों का जनाधार खिसकने लगा और पूरी हिंदी पट्टी का भगवाकरण होने लगा।

बदलाव का समपना देखने वाले लोगों के लिए इतिहास और भूगोल का यह सबक जरुरी है।

ढिमरी ब्लाक आंदोलन के बाद पार्टी से मोहभंग के कारण पुलिनबाबू और उनके साथी पार्टी से अलग हो गये।लेकिन तराई में किसानों और कामगारों का आंदोलन सिलसिलेवार जारी रहा।

साठ के दशक में तराईभर में सूदखोरों और महाजनों के खिलाफ आन्दोलन चला और तब भी हजारों किसानों की गिरफ्तारी हुई।

विडंबना यह है कि तब कुछ कम्युनिस्ट नेताओं ने किसानों की जमीन बिकवाने में बिचौलिये की भूमिका निभाई।

पिपुलिया,विजय नगर और नेताजीनगर कम्युनिस्ट पार्टी के गढ़ थे।नेताजीनगर के बंगाली शरणार्थी अपनी आठ आठ एकड़ जमीन सिर्फ दो हजार रुपये वायनामा करके भूमिहीन कामगार बन गये तो पिपुलिया और विजयनगर की जमीन भी उसी समय बिकी।

पुलिनबाबू, हरिपद विश्वास और तराई के नेताओं ने बंगाली शरणार्थियों की जमीन बचाने के लिए फिर आन्दोलन छेड़ा लेकिन 1967 में शरणार्थियों को भूमिधारी हक मिल जाने की वजह से तराई के दिनेशपुर इलाके में सभी बंगाली कालोनियों मे  शरणार्थियों की जमीन के हस्तान्तरण का सिलसिला जारी रहा।

नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्री बनने के बाद आन्दोलन की वजह से थारु बुक्सों की तरह बंगालियों की जमीन सिर्फ बंगालियों को बेचने का प्रावधान किया गया,जिससे बंगाली शरणार्थियों में ही सूदखोर महाजनों का एक नया तबका पैदा हो गया,जिन्होंने आहिस्ते आहिस्ते अपने पैसे के दम पर हरिपद विश्वास और पुलिनबाबू जैसे नेताओं को हाशिये पर धकेल दिया।वेलोग ही नये जमींदार बन गये और उनके हवाले हो गयी तराई।

मास्साब की लड़ाई आम जनता के हित में इस नये वर्ग के खिलाफ थी।सत्ता के खिलाफ जनता के हक हकूक के लिए थी।

1978 में पन्तनगर कृषि विश्विद्यालय में मजदूरों का आंदोलन शुरु हुआ तो 13 अप्रैल,1978 को विश्वविद्यालय परिसर में अनेक मजदूरों को पुलिस ने गोलियों से भून डाला।सरकार ने तेरह मजदूरों के मारे जाने की बात कबूल की।

इस बीच पहाड़ और तराई में चिपको आंदोलन चला जिसमें तराई के छात्रों,युवाओं की बड़ी भागेदारी थी।

पुलिनबाबू भी इस आन्दोलन के समर्थन में थे।मास्साब से पहले वे अलग उत्तराखंड राज्य के एक मात्र समर्थक थे।

फिर शुरु हुआ बिन्दुखत्ता का किसान आन्दोलन और ढिमरी ब्लाक की नाकामी के बाद भारी दमन के बावजूद किसानों ने इस आन्दोलन में बहादुर सिंह जंगी जैसे जुझारु साथियों के नेतृत्व में कामयाबी हासिल की।

1988 के दुर्गोत्सव के दौरान महतोष मोड़ पर भूमिहीन किसानों को बेदखल करने के लिए पुलिस और भूमि माफिया के गुंडों ने कई महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया और इसका विरोध करने के अपराध में आस पास के गांवों में पुलिस ने भारी जुल्म ढाये।

बलात्कारी छुट्टा घूमते रहे जिन्हें तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी का संरक्षण हासिल था।

बंगाली और पहाड़ी ध्रूवीकरण की तिवारी की राजनीति के खिलाफ तराई और पहाड़ की महिलाओं ने इसके खिलाफ जबर्दस्त आन्दोलन किया और इन्हीं महिलाओं ने फिर उत्तराखंड लड़कर हासिल किया।

इसी दौरान 1988 में मास्टर प्रताप सिंह ने संस्थागत सामाजिक आन्दोलन के मिशन के तहत प्रेरणा - अंशु का प्रकाशन शुरु किया और तराई में जनान्दोलनों की बागडोर संभाल ली।

मास्साब को अपनी मृत्यु से पहले तक पुलिनबाबू का समर्थन हासिल था।

हमने मई अंक में मास्साब के आंदोलनों,सामाजिक सक्रियता और रचनात्मकता पर फोकस किया है।

फिलहाल अपनी बात यही तक।



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