Monday, April 15, 2013

क्‍यों नहीं अंबेडकर ने इसपर सवाल खडा किया।

Satya Narayan 2:36pm Apr 15
क्‍यों नहीं अंबेडकर ने इसपर सवाल खडा किया। 

संविधान का जन्म और विकासः मूल से ही गैर-जनतांत्रिक और निरंकुश!

कम लोग ही इस तथ्य से परिचित हैं कि आज भारत के नागरिकों के लिए जो संविधान सम्मान्य और बाध्यकारी है उसे बनाने वाली संविधान सभा को चुनने का काम इस देश के बहुसंख्यक नागरिकों ने नहीं किया था बल्कि मात्र 11.5 प्रतिशत लोगों ने किया था। इन लोगों को सम्पत्ति का स्वामी होने के आधार पर चुना गया था। बताने की आवश्यकता नहीं है कि 1946 में पूँजीपतियों, ज़मींदारों, रियासतों के राजाओं और राजकुमारों के अतिरिक्त चंद कुलीन ही सम्पत्तिधारी होने के पैमाने पर खरे उतरते थे। 16 मई 1946 को ब्रिटिश वाइसराय वेवेल ने संविधान सभा बुलाई। इस संविधान सभा का चुनाव वयस्क सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर नहीं किया गया था बल्कि 1935 के 'गवर्नमेण्ट आफ इण्डिया एक्ट' के आधार पर चुनी गयी प्रांतीय विधान सभाओं को ही अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करके भेजने को कह दिया गया, जिसके आधार पर संविधान सभा का निर्माण होना था। इतिहास से परिचित सभी लोग जानते हैं कि इन विधान सभाओं का चुनाव 11.5 प्रतिशत मतदाताओं के आधार पर हुआ था जिनमें महज़ सम्पत्तिधारी वर्ग शामिल थे। इनमें मज़दूरों, किसानों, निम्नमध्यमवर्गों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था। नवम्बर 1946 में कांग्रेस के मेरठ सत्र में नेहरू ने वायदा किया कि आज़ादी मिलने के बाद नई संविधान सभा बुलाई जाएगी जिसे सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर चुना जाएगा। इसके बाद भी नेहरू ने कई बार यह वायदा किया था। लेकिन यह वायदा कभी पूरा नहीं हुआ। ठीक उसी प्रकार जैसे और तमाम वायदे नेहरू ने पूरे नहीं किये।
इसे गैर-जनवादी और निरंकुश रूप से बनी संविधान सभा ने जो संविधान बनाया वह 'गवर्नमेण्ट आफ इण्डिया एक्ट, 1935' का ही सच्चा वारिस था। यही कारण था कि इसकी 395 धाराओं में से 250 धाराएँ या तो शब्दशः उसी एक्ट से उठाईं गईं या फिर मामूली संशोधनों के साथ ली गईं। इसके अलावा उसके बुनियादी सिद्धान्त ज्यों के त्यों कायम रखे गये। जैसा कि हम जानते हैं, 'गवर्नमेण्ट आफ इण्डिया एक्ट, 1935' देश भर में जनता के ब्रिटिश राज के विरुद्ध बढ़ते असन्तोष पर पानी के छींटे मारने के लिए लाया गया एक्ट था। इसके दो प्रमुख लक्ष्य थे। एक, भारत के उभरते हुए और धीरे-धीरे अपनी ताक़त को बढ़ाते हुए पूँजीपति वर्ग को सत्ता में नाममात्र की साझीदारी देना। दो, आज़ादी की चाह और ब्रिटिश शासन के खि़लाफ़ नफ़रत रखने वाली भारत की जनता के गुस्से पर ठण्डे पानी का छिड़काव। इसका काम एक 'सेफ्टी वाल्व' का अधिक था और वास्तव में जनवादी अधिकार देने का कम। यही कारण था कि इस एक्ट के तहत हुए प्रान्तीय चुनावों में मताधिकार को सम्पत्तिधारी वर्गों से आगे विस्तारित नहीं किया गया। भारत के देशी शासक वर्गों को तो कुछ मिला लेकिन जनता का कुछ भी नहीं। इसे एक प्रतीकात्मक विजय भी मुश्किल से ही कहा जा सकता था।
बहुत ही ताज्जुब की बात है कि भारत में जनवाद और नागरिक अधिकारों की बात करने वाले एक से एक विश्व-प्रसिद्ध न्यायविद्, जनवादी अधिकार विशेषज्ञ, वकील, पत्रकार हुए, लेकिन बिरला ही कोई ऐसा रहा जिसने भारतीय संविधान के गैर-जनवादी उद्भव पर सवाल खड़ा किया हो और नयी संविधान सभा की बात की हो। न ही आज कोई भी चुनावी पार्टी इस मुद्दे पर कोई सवाल उठाती है। कांग्रेस नयी संविधान सभा के वायदे से मुकर गयी, जो कि स्वाभाविक ही था।

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