Monday, April 1, 2013

मॉरीशस मार्ग की माया

मॉरीशस मार्ग की माया

Monday, 01 April 2013 11:43

सुनील 
जनसत्ता 1 अप्रैल, 2013: अट्ठाईस फरवरी को बजट पेश होते ही, वित्तमंत्री की उम्मीद के विपरीत, शेयर बाजार का सूचकांक गिरने लगा और पिछले तीन महीनों के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। कारण खोजने पर बजट भाषण का एक वाक्य खलनायक बन कर उभरा। तत्काल वित्तमंत्री से लेकर वित्त मंत्रालय के अधिकारियों तक ने पत्रकार वार्ताएं आयोजित कर सफाई जारी की, 'गलतफहमी' दूर करने की कोशिश की और माफी मांगी। अगले दिन शेयर बाजार का लुढ़कना रुक गया, 'संकट' दूर हो गया और सब कुछ 'सामान्य' रूप से चलने लगा।
वह वाक्य क्या था? वाक्य इतना ही था कि मॉरीशस और अन्य देशों के साथ भारत के 'दोहरे करारोपण निषेध समझौतों' का लाभ उठाने के लिए 'कर-निवास प्रमाणपत्र' जरूरी होगा, लेकिन पर्याप्त नहीं होगा। यानी भारत में पूंजी निवेश कर रही कंपनियां संबंधित देश की हैं, इसे प्रमाणित करने के लिए इस प्रमाणपत्र के अलावा और भी सबूत देने होंगे।
मामला उस बदनाम 'मॉरीशस मॉर्ग' का है जो विदेशी कंपनियों द्वारा भारत में लगातार बड़ी मात्रा में कर-चोरी का शास्त्रीय उदाहरण बन चुका है। जब से भारत ने अपने दरवाजे विदेशी पूंजी के लिए खोेले हैं, सबसे ज्यादा विदेशी पूंजी संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप या जापान से नहीं बल्कि अफ्रीकी महाद्वीप के एक छोटे-से टापू-देश मॉरीशस से आ रही है। भारत में करीब चालीस प्रतिशत विदेशी पूंजी निवेश का श्रेय इस छोटे-से देश को प्राप्त है। इस चमत्कार का राज भारत और मॉरीशस के बीच 'दोहरे करारोपण निषेध समझौते' में छिपा है। इस समझौते में यह प्रावधान है कि कोई कंपनी एक देश में कर चुका रही है तो दूसरा देश उससे कर नहीं वसूलेगा। इस प्रावधान के कारण भारत के शेयर बाजार में शेयरों का कारोबार करने वाली मॉरीशस की कंपनियां करों में भारी बचत कर लेती हैं, क्योंकि मॉरीशस में कर नाममात्र का है। शेयरों की खरीद-फरोख्त में जो मुनाफा होता है, उस पर भारत में पंद्रह फीसद अल्पकालीन पूंजी-लाभ कर या दस फीसद दीर्घकालीन पूंजी-लाभ कर देना पड़ता है।
करों में इस भारी बचत का लाभ उठाने के लिए भारत में पूंजी लगाने की इच्छुक दुनिया भर की कंपनियां मॉरीशस में एक दफ्तर खोल लेती हैं। मॉरीशस सरकार उनको 'कर-निवास प्रमाणपत्र' (यानी कर के उद््देश्य से निवासी होने का प्रमाणपत्र) दे देती है और उसी के आधार पर उनको भारत में करों से छूट मिल जाती है। यह एक तरह की धोखाधड़ी है, क्योंकि मूल रूप से ये कंपनियां मॉरीशस की नहीं हैं और मॉरीशस में एक दफ्तर खोलने और यह प्रमाणपत्र हासिल करने के अलावा उनका मॉरीशस से कोई लेना-देना नहीं है। इसी की जांच करने और मॉरीशस की कंपनी होने के और ज्यादा सबूत मांगने की एक पंक्ति बजट में आ गई थी, जिससे इन कंपनियों में घबराहट फैल गई और शेयर बाजार नीचे जाने लगा। उनकी चिंता दूर करने के लिए वित्तमंत्री ने बाद में कहा कि यह वाक्य गलती से आ गया है। हम संसद में वित्त विधेयक पास करवाते वक्त इस गलती को सुधार लेंगे। कर-निवास प्रमाणपत्र को ही पर्याप्त सबूत माना जाएगा। अगर इसमें कोई बदलाव करना होगा तो वह मॉरीशस सरकार से बातचीत के बाद दोनों की सहमति से ही होगा और अभी घबराने की कोई जरूरत नहीं है। 
गौरतलब है कि दोनों सरकारों ने 'दोहरे करारोपण निषेध समझौते' की समीक्षा करने और इसको सुधारने के लिए 2006 में एक समूह गठित किया था, जिसने अभी तक कुछ विशेष नहीं किया। इसकी ज्यादा बैठकें भी नहीं हुर्इं। शायद इसलिए कि भारत सरकार नहीं चाहती थी। वित्तमंत्री के आश्वासन से यही लगता है कि यह समूह निकट भविष्य में भी कुछ ठोस नहीं करने वाला है। भारत में करों की यह विशाल चोरी मजे से लगातार चलती रहेगी।
कर-चोरी के इस मॉरीशस मार्ग पर पहले भी कई बार सवाल उठे हैं। भारत और मॉरीशस में यह समझौता 1983 में हुआ था, लेकिन इसका दुरुपयोग नब्बे के दशक में शुरूहुआ जब भारत ने अपने शेयर बाजारों में विदेशी पूंजी को इजाजत और न्योता देना शुरू किया। 2000 में कुछ देशभक्त आयकर अधिकारियों ने मॉरीशस में फर्जी निवास करने वाली इन कंपनियों की जांच शुरू की थी, तब भी यही नाटक हुआ था। कंपनियों ने भारत से अपनी पंूजी वापस ले जाने की धमकियां दीं, शेयर बाजार गिरने लगा और तब वित्त मंत्रालय ने अपने ही अधिकारियों पर रोक लगाते हुए एक परिपत्र निकाला। इस बदनाम परिपत्र (क्रमांक 789) में निर्देश दिया गया था कि मॉरीशस सरकार का 'कर-निवास प्रमाणपत्र' अपने आप में पर्याप्त है और आगे कोई जांच करने की जरूरत नहीं है। तेरह साल बाद इसी देश-विरोधी नाटक को दोहराया गया।
इसी तरह का एक और उदाहरण 'गार' का है। एक साल पहले बजट में तत्कालीन वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने कंपनियों द्वारा कर-वंचन रोकने के लिए कुछ नियम बनाने की घोषणा की थी, जिन्हें 'जनरल एन्टी-अवॉयडेन्स रूल्स' या 'गार' कहा गया। इसमें यह भी प्रावधान था कि जो कंपनी विविध छूटों का लाभ उठा कर कोई भी कर देने से बच रही है, उसे एक न्यूनतम कर तो सरकार को देना पड़ेगा। वोडाफोन नामक यूरोपीय फोन कंपनी ने भारत में फोन कारोबार के शेयरों का बड़ा सौदा देश से बाहर करके 11,000 करोड़ रुपए से ज्यादा का टैक्स बचाया था। ऐसे सौदों को भी कर-दायरे में लाने के लिए कानून को पिछली तारीख के प्रभाव से बदलने की घोषणा प्रणब मुखर्जी ने की थी। इन घोषणाओं से विचलित होकर विदेशी कंपनियों ने फिर विरोध करना और धमकियां देना शुरू कर दिया। 

कंपनियों से टैक्स वसूल कर सरकार का राजस्व बढ़ाना किसी भी वित्तमंत्री का स्वाभाविक प्रयास और कर्तव्य होता है, लेकिन प्रणब मुखर्जी को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। राष्ट्रपति बना कर उन्हें राह से हटा दिया गया। कंपनियों के हितैषी चिंदबरम ने वित्तमंत्री बनते ही पार्थसारथी शोम की अध्यक्षता में एक समिति बना कर उसे 'गार' की समीक्षा करने का काम सौंप दिया। महज दो-तीन महीने में शोम समिति ने अपनी रपट दे दी और जनवरी में सरकार ने उसकी सिफारिशों को मंजूर करते हुए 'गार' को लागू करने का काम 1 अप्रैल 2016 तक स्थगित कर दिया। वोडाफोन को भी आश्वस्त किया गया कि उस पर टैक्स नहीं वसूला जाएगा। 22 जनवरी को वित्तमंत्री चिदंबरम हांगकांग में भारत में पूंजी-निवेशक कंपनियों के सम्मेलन में गए और घोषणा की कि उन्होंने गार के भूत को दफन कर दिया है और अब कंपनियों को डरने की कोई जरूरत नहीं है। फिर वे सिंगापुर, लंदन और फ्रैंकफुर्त भी गए और इसी तरह विदेशी पूंजीपतियों को आश्वस्त करने, खुश करने, मनाने की कोशिश की।
भारत सरकार एक विचित्र स्थिति में पहुंच गई है। वह बजट घाटे को कम रखने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है ताकि रेटिंग एजेंसियों द्वारा उसकी रेटिंग ठीक रहे और उसके मुताबिक विदेशी पूंजी निवेशक भारत की ओर रुख करते रहें। बजट घाटे को कम करने के लिए सरकार जनकल्याण पर जरूरी खर्च में कटौती कर रही है, सरकारी संपत्ति को बेच रही है और जनसाधारण पर डीजल, बिजली, पानी आदि की बढ़ती हुई दरों का बोझ डाल रही है। लेकिन दूसरी तरफ वह बड़ी-बड़ी कंपनियों पर टैक्स कम कर रही है, उन्हें करों से बचने की इजाजत दे रही है। उन्हें अनुदान भी दे रही है। 
यह खुला खेल सरकार क्यों खेल रही है? क्या उसकी कोई मजबूरी है? कहा जा सकता है कि एक मायने में सरकार मजबूर है। अर्थव्यवस्था की हालत खराब है। राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर कम होती जा रही है और विदेशी मुद्रा का भुगतान संतुलन लगातार बिगड़ रहा है। विदेश व्यापार हमेशा से घाटे में था, लेकिन अब इस घाटे ने विकराल रूप धारण कर लिया है। बाहर से जो अन्य चालू प्राप्तियां (जैसे विदेशों में बसे भारतीयों द्वारा भेजा जाने वाला पैसा) मिलती थीं, उनका प्रवाह भी सूखने लगा है। ऐसी हालत में भुगतान संतुलन के चालू खाते का घाटा 7500 करोड़ डॉलर का विकराल रूप धारण कर चुका है। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार पहले लगातार बढ़ रहा था, पर अब वह भी छीजने लगा है। अगर हालात नहीं सुधरे तो हम 1991 जैसीसंकटपूर्ण स्थिति में पहुंच सकते हैं, जब भारत को अपना सोना लंदन में गिरवी रखना पड़ा था और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से काफी अनुचित शर्तों पर कर्ज लेना पड़ा था। 
इस संकट से उबरने का एक ही उपाय सरकार को दिखाई देता है, वह यह कि किसी भी कीमत पर विदेशी पूंजी को बुलाए और पूंजीगत खाते के अधिशेष से चालू खाते के घाटे को पूरा करे। यह अलग बात है कि ऐसा करने से देश की देनदारियां और बढेÞंगी, और आने वाले सालों में भुगतान संतुलन का संकट और गंभीर होगा। दरअसल, पिछले दो दशक में सरकार लगातार विदेशी लेन-देन में चालू खाते के घाटे को विदेशी कर्जों और विदेशी पूंजी से पूरा करने का प्रयास करती रही है और इसको उपलब्धि बता कर खुद की पीठ ठोंकती रही है। 
आज विदेशी पूंजी के प्रवाह पर सरकार इतना ज्यादा निर्भर हो गई है कि विदेशी पूंजीपतियों के थोड़ी भी नाराजगी दिखाने या धमकी देने से सरकार घबरा जाती है, उनकी नाजायज मांगें भी मानने को मजबूर हो जाती है। गौरतलब है कि भारत में आ रही विदेशी पूंजी में लगभग आधा हिस्सा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश है तो आधा केवल शेयर बाजार में लगने वाला पोर्टफोलियो निवेश है और खासतौर पर यही सट््टात्मक वित्तीय पूंजी भारत सरकार को जिस तरह चाहे नचा रही है। विडंबना यह है कि इसकी तमाम मांगें पूरी करने के बावजूद कभी भी मुसीबत के समय में इसे भागते देर नहीं लगेगी। दस साल में आए विदेशी पोर्टफोलियो निवेश को वापस जाने में दस दिन भी नहीं लगेंगे। मैक्सिको और दक्षिण-पूर्व एशिया के अनुभव इस बात के उदाहरण हैं कि यह वित्तीय पूंजी पहले तो तेजी का गुब्बारा फुलाती है और उसके फूटते वक्त सबसे पहले साथ छोड़ कर भागती है। यह चंचल, उड़नछू पूंजी कभी भी बड़ी-बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को अस्थिर कर सकती है। 
विदेश व्यापार का बढ़ता घाटा बता रहा है कि निर्यात आधारित विकास का मॉडल बुरी तरह विफल हुआ है। राष्ट्रीय आय की ऊंची वृद्धि दर एक बुलबुला साबित हुई है। दरअसल, इस गरीब देश के करोड़ों लोगों के हितों और मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों में बुनियादी विरोध है। एक की कीमत पर ही दूसरे को साधा जा सकता है, इसे लातिन अमेरिका के नव-समाजवादी शासकों ने अच्छी तरह समझा है।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/41621-2013-04-01-06-14-40

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcom

Website counter

Census 2010

Followers

Blog Archive

Contributors